आचार्य प्रवेश कुमार धानका - अलवर (राजस्थान)
ग़रीब - कविता - आचार्य प्रवेश कुमार धानका
मंगलवार, नवंबर 11, 2025
अमीर सुख से सो रहा है
पैसों के बीज बो रहा है
धन पैदा बहुत हो रहा है
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
रहता चिंतित और बेचैन,
सुख मिले नहीं दिन-रैन।
स्वाभिमान को खो रहा है,
परेशान बहुत हो रहा है।
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दुख से रो रहा है।
बहुत कम है उसकी कमाई,
नहीं मिल पाती उसे दवाई।
वह बीमारी से भयभीत है,
मर न जाऊँ चिंतित है।
अब धीरे-धीरे बोल रहा है,
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
बीमार पत्नी, जब घबराई,
एंबुलेंस नहीं मिल पाई।
तड़प-तड़प पत्नी ने दी जान,
नहीं मिला उसे सम्मान।
वो लाश कंधों पर ढो रहा है,
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
कभी-कभी भूखा सो जाता,
अन्न नहीं उसे मिल पाता।
बच्चे भूख से रोते हैं―
और भूखे ही सो जाते हैं।
रोटी की खोज कर वो रहा है,
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
गर्मी में वह तपता है,
सर्दी में ठिठुरता है।
वर्षा में भीगता है–
घर जो टपकता है।
योजनाओं का लाभ मिलता नहीं, सड़क पर वह सो रहा है,
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
ग़रीब की कोई सुनता नहीं,
मदद कोई करता नहीं,
ग़रीब के लिए पैसा तो आता है,
पर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
अब ग़रीबी नहीं, खुद ग़रीब ही मिट रहा है,
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
ग़रीब का हक अमीर खा रहे हैं,
ग़रीबी मिटाने का नारा लगा रहे हैं।
झूठे नारे से कुछ होता नहीं,
ग़रीब का दु:ख मिटता नहीं।
अब ग़रीब और ग़रीब हो रहा है,
ग़रीब दु:ख से रो रहा है, ग़रीब दु:ख से रो रहा है।
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