जग मुझे कुछ भी कहे, पर मैं जगत का दास हूँ।
दोष तारों सा लिए जो, मैं वही आकाश हूँ॥
मन उसी में रम रहा जो वास्तव में है नहीं,
उस तरफ़ जाता नहीं जो वास्तव में है सही।
मन भले अमरत्व माने, नाश के मैं पास हूँ॥
धर्म की अवधारणाएँ, पुस्तकों तक रह गई,
ढेर सारी नीतियाँ भी, ज़िंदगी से कह गईं।
नीतियाँ मिथ्या लगे, न कर रहा विश्वास हूँ॥
काल का ये चक्र जिसमें घूमती है ज़िंदगी,
अंश जिसका हूँ नहीं करता उसी की बंदगी।
आम ये जीवन मेरा कैसे कहूँ मैं ख़ास हूँ॥
कर्म सारे स्वार्थरत जिनका न कोई अर्थ है,
मोह-माया से ग्रसित ये ज़िंदगी भी व्यर्थ है।
लोभ, ईर्ष्या भाव जिसमें हों वही आवास हूँ॥
हे प्रभो! जाने कृपा कब आपकी हो पाएगी,
ज़िंदगी मेरी नहीं जब आपकी हो जाएगी।
आपके आशीष बिन मैं ख़ुद बना उपहास हूँ॥
इंद्र प्रसाद - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)