एक छोटे से शहर के एक सरकारी दफ़्तर में एक कोने में एक बेंच पर एक 60 वर्षीय बूढ़ा व्यक्ति रामलाल किसी चिंता में ध्यानमग्न सा बैठा था। उसके चेहरे की सलवटे देखकर ये अनुमान लगाया जा सकता था की शायद वो किसी का इंतज़ार कर रहा था। जीवन भर के संघर्ष की रेखाएँ उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी। एक कमरे का दरवाज़ा खुला और एक सरकारी कर्मचारी हाथों में कुछ काग़ज़ लिए धीरे-धीरे रामलाल की ओर बढ़ने लगा।रामलाल उसकी ओर आँखे फाड़ फाड़कर देखने लगा। उसे उम्मीद थी कि आज तो उसका काम हो गया होगा। कर्मचारी बिल्कुल रामलाल के पास आकर खड़ा हो गया और रामलाल के हाथ में वो काग़ज़ात थमा दिए। वो कर्मचारी अपने वक्षस्थल में अनुकंपा भरते हुए बोला "देखिए दादा जी! ये सरकारी कार्यवाही है। जहाँ काम धीरे-धीरे ही होते हैं। आपको पेंशन मिलने लग जाएगी।" ये सुनते ही रामलाल थोड़ा सा उत्सुक हो उठा। तभी उस कर्मचारी ने कुछ ऐसा कह दिया की रामलाल के हूक सी उठ खड़ी हुई। "दादा बस आपको दस दिन और इंतज़ार करना पड़ेगा।" ये सुनते ही रामलाल पूरी तरह निराश हो गया। वो पिछले 10-20 दिनों से लगातार यही जवाब सुन रहा था। वो उस सरकारी दफ़्तर से निकला और निराशा से अपनी उस टूटी हुई झोंपड़ी की ओर बढ़ने लगा। वो कुछ देर के लिए अपनी सोच में गुम सा हो गया। वो सोचने लगा की अगर उस सड़क दुर्घटना में उसके बेटे और बहू की मौत नहीं होती तो उसे आज ये दिन नहीं देखने पड़ते। उसका भूत उसके मस्तिष्क में आने लगा। वो निराशा से अपने टूटे फूटे झोंपड़ी जैसे घर में घुस गया। उसकी पत्नी हरमा देवी कुछ उत्सुकता से उसके पास आई और उत्सुकता से रोज़ की तरह वही सवाल पूछ डाला "काम हुआ क्या?" ये बोलते ही वो कुछ देर के लिए मौन सी हो गई। रामलाल ने भी हर रोज़ की तरह ना में सिर हिला दिया। हरमा देवी भी पूरी तरह से निराश हो गई। रामलाल ने अपनी पत्नी के चेहरे की ओर गंभीरता से देखते हुए पूछा "चमेली की तबियत कैसी है?" ये सुनते ही वो फिर से मायूस सी हो गई और एक कोने की और अंगुली कर दी। उस कोने में एक टूटी हुई खाट पर एक 8-9 वर्ष की लड़की लेटी पड़ी थी। रामलाल ने अपनी पोती की और देखते हुए एक ठंडी आह भरी। "चमेली को बहुत तेज़ बुखार है, खाँसी और जुकाम भी है।" हरमा देवी ने सिसकते हुए कहा। "घर में जो कुछ भी खाने के लिए था सब ख़त्म हो गया और हमे तो पेंशन भी नही मिल रही।" हरमा बाई ने फिर से कहा। कुछ देर के लिए वे दोनो ही स्तब्ध से खड़े रहे। हरमा बाई ने फिर धीरे से पूछा "आप कल फिर से सरकारी दफ़्तर जाओगे क्या?" ये सुनते ही रामलाल थोड़ा सा चौंक गया। उसे लगने लगा जैसे उसकी पत्नी उसे चिढ़ा रही है। रामलाल ने धीरे से हाँ में सिर हिला दिया और तेज़ी से चमेली की और देखा वो खाँस रही थी। उसने अपने दादा की और कुछ शकभरी निगाहों से देखा। रामलाल ये देखकर थोड़ा सा घबरा गया और तेज़ी से अपने घर के बाहर निकल गया। वो अपने क़दम घसीटते हुए धीरे-धीरे शहर की और बढ़ने लगा। उसके मन में कई विचार तेज़ी से दौड़ रहे थे। उसकी पोती चमेली का बुखार से मुरझा चुका चेहरा बार-बार उसके सामने आ रहा था। वो सोच रहा था की अगर उसे शहर में कोई काम मिल जाए तो वो चमेली के लिए दवाई ख़रीद सकता था। ये सोचते हुए वो तेज़ी से शहर की और बढ़ने लगा। शायद भगवान भी उसके साथ थे। उसे एक बाग़ की साफ़ सफ़ाई का काम मिल गया। शाम को काम पूरा हो जाने पर उसे 500 रूपये दिए गए। उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा। वो तेज़ी से बाज़ार गया। चमेली के लिए कुछ दवाइयाँ और मिठाई उसने ख़रीदी और तेज़ी से घर की और बढ़ने लगा। अँधेरा हो चुका था। वो तेज़ी से अपने घर में जा घुसा। जाते ही वो चिला पड़ा "देखो मैं चमेली के लिए दवाइयाँ और मिठाई लाया हूँ, अब सब कुछ ठीक हो जाएगा।" हरमा रोती हुई उसके पास आई। रामलाल ने कंपकंपाते हुए शरीर के साथ डरते हुए पूछा "चमेली कहा है?" हरमा बाई ने रोते हुए एक और इशारा किया। चमेली औंधे मुँह लेटी पड़ी थी मानो उसमें प्राण ही ना हो।रामलाल के हाथ से दवाइयाँ ज़मीन पे जा गिरी।
भूपेन्द्र सिंह रामगढ़िया - रामगढ़ (झारखण्ड)