चंट लेखिका - रिपोर्ताज - ईशांत त्रिपाठी

चंट लेखिका - रिपोर्ताज - ईशांत त्रिपाठी | Reportage - Chant Lekhikaa - Ishant Tripathi
क्या लिखते हो रंजन भाई!! सच कहूँ तो जो कोई भी आपके लेखन को पढ़ेगा तो इन शब्द-अर्थ और विषय के सौन्दर्य में उसकी तादात्म्यता हो ही जाएँगी। ख़ास बात तो यह है कि इस 17-18 वर्ष की उम्र में आप इतना बेहतर लिखते हैं, वाह भाई वाह!; रंजना अपने भाई की गुण बखानते थकी नहीं। कहाँ अच्छा लिख पाता हूँ? ठीक लिखता अगर तो लोगों को पसंद आती; ऐसा कहकर रंजन मानो नीरास कल्पना में टहलने निकल पड़ा।अरे भ्राता अभी बहुत अवसर मिलेंगे। रंजना रंजन को वार्ता में पुनः खींच लेती है। रंजन छलयुक्त धीमी मुस्कान करते हुए बताता है कि उसके एक पड़ोसी ही लेखन में सक्रिय है। उन्होंने उसकी रचनाएँ पढ़ी भी हैं और सराहें भी हैं लेकिन कभी मार्गदर्शन नहीं किया कि वह और बेहतर कैसे करे। रंजना विश्वस्त हो मात्र इतना कहती है कि ईश्वर दयालु है और सहसा माहौल ख़ुशनुमा हो जाता है। समय बीतता है और अगहन का महीना आता है। दो तारीख़ को अत्यावश्यक सूचना मिलती है रंजन को अपने महाविद्यालय वापस आने की। रंजन महाविद्यालय से कुछ दिनों के लिए स्वास्थ्य दृष्टि से अवकाश लेकर अपने घर इंदौर आता है। अब उसे पुनः हरिद्वार जाने की चिंता सताती है। रंजन तीन तारीख़ को हरिद्वार जाने के लिए तैयार हो जाता है। सुबह-सुबह तड़के ही रंजन को उसके पड़ोसी लेखिका रमा का फ़ोन आता है। रंजन को वह बताती हैं कि उनके 'कर्म बोलता है' नामक प्रथम पुस्तक का लोकार्पण समारोह 11 तारीख़ को है और वे हृदय से चाहतीं हैं कि बड़े-बड़े साहित्यकार और विद्वानों के मध्य वह रहे, सीखे और उन्नति करे। रंजन उनके शहदमयी वरदानी बातों को सुनकर महाविद्यालय के नुकसान को नज़र-अंदाज़ कर देता है और धैर्यपूर्वक 11 तारीख़ का इंतज़ार करता है। रंजन के माता-पिता उसे कहते हैं कि पढ़ाई-लिखाई करो, ऐसे मंच और समारोह लाखों मिलेंगे। रंजन लेखिका रमा को मन ही मन माँ के दर्जे से आदर करने लगा था इसलिए किसी भी तरह माता-पिता को समझाकर शांत कर देता है। 10 तारीख़ के शाम को लेखिका रमा का फ़ोन आता है यह जानने के लिए कि रंजन कहीं हरिद्वार तो नहीं चला गया। वह रंजन को कहतीं हैं कि कल मेरे साथ ही कार में चलना। रंजन लेखन जगत में ख़ुद के लिए यह आशीर्वादात्मक अवसर जान समय पर बढ़िया तैयार हो लेखिका रमा के कहे अनुसार उपस्थित हो जाता है। लेखिका रंजन से उसके फ़ोन के कैमरे के विषय में पूछती है और कहती हैं कि वहाँ मेरा वीडियो अच्छे-अच्छे बनाना। रंजन बताता है कि महाविद्यालय के आवश्यक अध्ययन सामग्री के कारण फ़ोन ठीक से काम नहीं करता है। इस पर लेखिका नाक सिकोड़ते हुए झट से कहती हैं कि कुछ भी करो वीडियो अच्छे बनाना है। कार चलती है और लेखिका होटल के समीप कार रुकवा कर रंजन को कहतीं हैं कि अतिथियों के लिए कुछ नाश्ता प्रबंधन के लिए होटल में कह रखा है, तुम जाओ और नाश्ता लाकर गाड़ी में रख दो। गंतव्य स्थान पहुँचने के कुछ पल पहले रूपया थमाते हुए कहती हैं कि रंजन बेटा! जाओ अतिथियों के लिए फूल की माला लेकर आ जाओ। बेचारा रंजन कभी ऐसे कोई काम नहीं किया था‌। माता-पिता का लाड़ला रंजन केवल पढ़ाई के जोड़-तोड़ जानता था। किसी हाल माला के साथ उचित समय कार्यक्रम पर पहुँच जाता है। कार्यक्रम स्थल वृद्धाश्रम था। रंजन को वृद्ध बेसहारों को देख बड़ा दया आ रहा था। कार्यक्रम में कुछ क्षण व्यतीत होते ही लेखिका फूहड़ लहज़े से रंजन को बुलाकर कहती हैं कि सबको नाश्ता बाँट दो और पानी दे दो और चाय का डिस्पोजल नहीं ला पाए हैं तो वो ला दो और सुनो चाय-नाश्ता मुख्य अतिथि को पहले बाँटना, बूढ़ों को जो बचेगा तो देखा जाएगा। ऐसा कहकर वह सभा के गोल-गोल मिश्री वाले नशीले शब्दों में आत्ममुग्ध हो रही थी। अब रंजन की आत्मा कुढ़ने लगी क्योंकि उस लेखिका ने न किसी व्यक्ति विशेष से उसका परिचय कराया न उसे बैठकर सुनने का मौक़ा दे रही थी। वह तो उसकी विनम्रता और शालीनता का शोषण कर रही थी। रंजन का मस्तिष्क अनेक विचारों से भर गया कि वृद्ध बेसहारों की आड़ में यह तो अपनी रोटी सेंक रही है। मोहल्ले में सब इससे इसलिए दूर भागते हैं क्योंकि यह सबका ऐसा ही शोषण करती होगी। यदि सरस्वती ऐसे लोगों पर दया करती हैं तो कदाचित मुझे उनके दया की कोई आवश्यकता नहीं। एक क्षण में रंजन का उपकारी मन कुंठित हो उपेक्षाओं से भर गया। जो मन लाखों करोड़ों का उपकार कर सकता था और जो समाज का तारक हो सकता था, उसके मूल भावनाओं को लाश बना दिया। ऐसे कवियों और लेखकों की आत्ममुग्धता न जाने कितने रंजन की बलि ले लेते हैं। ईश्वर के दिए विवेक का जो प्रयोग परस्पर भलाई छोड़ यदि किसी का शोषण, किसी को नीचा दिखाने और किसी से सम्मान पाने के लिए करता है, वह और उसका कुल नीयती से अपना कर्म भोगता हैं विक्षिप्तता, मंदबुद्धि और विनाश के रूप में। अतः सब प्रकृति के संतान हैं यहां हर रंजन फूल जैसा खिलने का अधिकार रखता है वरना विधाता के दण्ड में शोर तो किसी ने नहीं सुना है।

ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्य प्रदेश)

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