रात में सूरज - कविता - कर्मवीर सिरोवा 'क्रश'

मरुस्थल की रात का लिहाफ़ हैं,
उस पे शीतलता का पर्याय गुदड़ा भी बदन के नीचे साफ़ हैं,
वो सामने, आँखों की सम्त पेशानी पर बल्ब जल रहा है, 
चाँद आसमाँ में हैं, 
लगता हैं उस घर में चाँद नहीं,
भविष्य का सूरज पढ़ रहा हैं।

भोर जगे या न जगे, चिड़िया बोले या ना बोले,
एक बल्ब जलता हैं सूरज बनकर,
किताबें बोलती हैं घर से कि दिन निकलने वाला हैं।

रह रहकर बन्द आँखों को 
प्रकाश की कौंधती किरणें जगा देती हैं,
सोने के अनगिनत प्रयासों के बाद भी 
मेरे अचेतन में सुप्त सा ख़्वाब 
यथार्थ की धरती को गले लगाने दौड़ता हैं;

और मैं चाँद की शीतल टिमटिमाती चादर को उतार फेंकना चाहता हूँ;
और वही जाना चाहता हूँ जहाँ रात के अँधेरे में चाँद की नीचे टेबल के पास किताबी चिड़िया फड़फड़ाती हैं और जगाती हैं सूरज को।

मैं फिर करना चाहता हूँ ये बाल प्रयास।
फिर जगाना चाहता हूँ रात के अँधेरे में जूगनूओं को।
मैं फिर चूमना चाहता हूँ टेबल के गाल।

वो जो चिड़िया खो गई हैं, 
उसे फिर देखना चाहता हूँ पास,
मेरे जीवन के मधुर गीत गाते हुए।

हाँ, जब देखता हूँ देर रात तक उस घर में बल्ब जलते हुए,
मेरी आँखें इस चाँदनी रात में सूरज को धीरे-धीरे निकलते पाती हैं।


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