जो बीत गया उसे जाने दो - कविता - अनूप अंबर

जो बीत गया उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।
टूट के बिखरे खंडहरों में,
फिर से दीप जलाने दो।

गिरना उठाना फिर से चलाना,
सुनो मुसाफ़िर, कभी न रुकना।
तुम्हें मंज़िल से पहले नहीं ठहरना,
ये संकल्प आज उठाने दो।

जो बीत गया उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।

जब धरती ग्रीष्म में तपती है,
अंगारों के सम जलती है।
शुष्क हवा के थपेड़ों से,
फिर सारी सृष्टि दहलती है।
नभ पर घनघोर बादल छाया,
इसको तन मन को भीगने दो।

जो बीत गया उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।

जब ठोकर लगती गिर जाते हैं,
फिर भी मुसाफ़िर चलते जाते है।
अवरोध बहुत आते हैं लेकिन,
पर कभी वीर नहीं घबराते हैं।
सिर्फ स्वप्न देखने से क्या होगा?
सपनों को साकार बनाने दो।

जो बीत गया उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।

जब आते भीषण झंझावात,
तो कुछ तरु गिर जाते हैं,
नवीन सृजन को वो अपने,
बीज अंकुरित कर जाते है।
ऐसे ही जीवन होता है,
तूफ़ान तो आते जाते है,
जीवन के तूफ़ानों से,
अब जी भर के टकराने दो।

जो बीत गया उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।

पथ सरल न होता मंज़िल का,
पथ में अनेक विघ्न आते है।
जो बाधाओं से न विचलित होते,
वही लोग मंज़िल पाते है।
जो गिर-गिर के उठ जाते है,
वह लोग इतिहास रच जाते है।
इतिहास के नए पन्नों पर,
एक अध्याय और लिख जाने दो।

जो बीत गया उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।

जो उम्मीदों को ज़िंदा रखते है,
जो कभी नहीं हौसला तजते है।
जो अपने दिल की सुनते है,
वो अपने मन की करते है।
रुके नहीं कभी क़दम तुम्हारे,
अब इनको मंज़िल पाने दो।

जो बीत गया है उसे जाने दो,
फिर से नव स्वप्न सजाने दो।

अनूप अंबर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)

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