छाया बिन काया - कविता - शेखर कुमार रंजन

काया को छाया से प्यार हो गया,
आँखों से आँखें, चार हो गया।
छाया चली गई छोड़कर एक दिन,
तब से ही काया बीमार हो गया।

काया, छाया को कभी भुल न पाया,
छाया की कमी उसे अंदर से खाया।
छाया की यादों ने हरदम सताया,
सच्ची मोहब्बत था भूल ही न पाया।

हालात बदले और वक़्त कुछ बीते,
गम को भुलाने को रोज़ काया पीते।
छाया की यादें दिल से न जाती,
चारो पहर बस छाया याद आती।

सारी यादें और संग बिताए पल,
ऐसे याद आतें है जैसे बीते कल।
पल में रूठना पल में मान जाना,
याद है काया को सारा बहाना।

काया और छाया का एक ही सपना,
संग दोनों हो और एक घर अपना।
पर नियति ऐसी वो एक ना हो पाया,
छाया की हुई शादी काया हो गया पराया।

जिसके साथ पूरी ज़िंदगी बितानी थी,
बिना उसके ज़िंदगी समझो मौत की आ जानी थी।
अब काया किश्तों में रोज़ मर रहा था,
एक बार में ही मर जाएँ दुआ कर रहा था।

अधूरी मोहब्बत ने तोड़ा इस क़दर,
दर्द घुलता है अब तो चारों पहर।
काया की दर्द अब काया ही जानता,
वैध मोहब्बत को बीमारी क्यों न मानता।

शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos