प्रभा - गीत - संजय राजभर 'समित'

थका हुआ क्यूँ सोया है तू, जन्म मिला अलबेला है।
कट गई घनेरी रात प्रिये! जाग प्रभा की बेला है॥

न कर आलस अंतस में,
कर्म धन चमकता है।
सीकर से छाए ओज,
सहज ही दहकता है।
              
नव उमंग का संचार करें, बाक़ी माया मेला है। 
कट गई घनेरी रात प्रिये! जाग प्रभा की बेला है॥

गगनचर चँहकने लगें,
भँवरें कली-कली पर।
अमराई में पान में,
कोयल है डाली पर। 

भौतिकता के लहरें घातक, लगते बस यह ठेला है।
कट गई घनेरी रात प्रिये! जाग प्रभा की बेला है॥

कहीं न रूके न बैठें,
कर्म ही उजाला है।
जीवन दर्पण देख ले,
छाया भी आला है।

शिक्षा, ज्ञानवर्धक पढ़, विवेक का सब खेला है।
कट गई घनेरी रात प्रिये! जाग प्रभा की बेला है॥


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