तिनका-तिनका बीन-बीन कर,
वो अपना नीड़ सजाता है ।
हवाओं का अभिमान तोड़ कर,
वो लक्ष्य को अपने पाता है॥
ये मेहनत का आराधक है,
आशाओं की लड़ियाँ सजाता है।
अपने भविष्य को सजाता है,
भोजन भी ढूँढ़ के लाता है॥
फिर तूफ़ान एक दिन आता है,
सब तहस नहस कर जाता है।
गिर जाते विशाल विपट भूधर,
तिनकों का नीड़ बिखर जाता है॥
देख रहा है वो उजड़ा बसेरा,
कुछ पल उदास हो जाता है।
फिर से मन में संकल्प उठा,
नव नीड़ पुनः बनाता है॥
कौन सिखाता है खग तुमको,
ये कैसे तू कर पाता है?
कहाँ से लाता इच्छाशक्ति,
कैसे ख़ुद को समझाता है?
कुछ सीखा दो मानव को भी,
ये क्यूँ हताश हो जाता है?
जीवन तो नाम है संघर्षों का,
फिर संघर्ष से क्यूँ घबराता है?
अनूप अंबर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)