मैं पेड़ों से बतियाता हूँ - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन'

पक्षी तितली जुगनू भँवरे,
पुष्पों के संग मैं गाता हूँ।
वन पर्वत खेत नदी सागर,
मैं पेड़ों से बतियाता हूँ।

न ऊँच नीच न जाति धरम,
मिल करके गले लगाते सब।
कुछ वे कहते तब मैं सुनता,
मैं कहता कुछ मुस्काते तब।

उनके जैसा बन जाता हूँ,
मैं पेड़ों से बतियाता हूँ।

पक्षी तितली जुगनू भँवरे,
कभी बाग में सारे आते हैं।
चूँ-चूँ चीं-चीं गुन-गुन भन-भन,
अनुराग का राग सुनाते हैं।

कहीं बचपन में खो जाता हूँ,
मैं पेड़ों से बतियाता हूँ।

मनभावन गन्ध की बोली में,
पुष्पों की मूक ठिठोली में।
प्रियसी प्रियतम बन जाते हैं,
बिन छूकर अंग लागते हैं।

शृंगार के बिन सज जाता हूँ,
पुष्पों के संग मैं गाता हूँ।

अम्बर छूता पर्वत कहता,
कद नीलगगन तक ले जाना।
वन विरवे और फ़सल कहती,
मत छोड़ो निशदिन मुस्काना।

सरिता की कल-कल में पल-पल
अविरल धारा बन जाता हूँ,
मैं पेड़ों से बतियाता हूँ।

हे सृजनहार! नमन झुककर,
तेरी रचना कितनी प्यारी है।
एक से बढ़कर एक हैं सूंदर,
जितनी सारी सब न्यारी है।

तेरी स्तुति मन से गाता हूँ,
मैं पेड़ों से बतियाता हूँ।

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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