अटूट विश्वास - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'

भगवान बसते कण-कण में, कहाँ-कहाँ खोज मैं आया,
मूर्ति गड़ ली, शिला तराशी, देव का वास विश्वास में पाया। 

कुरुक्षेत्र में योद्धा लाखो है, पार्थ हताश हैं रिश्तों में, 
गीता ज्ञान का बोध वासु सा, अटूट विश्वास रन जीत आया।
मित्र जहाँ बन गया सुदामा, हरि से करे ना कोई आस,
दो मुट्टी चावल दे कर भी, प्रभु संग हृदय का वास है पाया l
देव का वास विश्वास में पाया...

सम्भव जिसे ना लाँघ पाए, सागर सा अनन्त वो छोर,
आत्म शक्ति जब जाग गई, बजरंगी था वो हटजोर।
राम भक्त विश्वास भर चले, भवसागर सम्भव कर पाया, 
जनक सुता विश्वास पतिव्रता, रावन की लंका विध्वंस कराया।
देव का वास विश्वास में पाया...

मीरा जिसकी ताक धरे, दर-दर भटके जाए,
भक्ति का विश्वास जगा के, ठाकुर को वो ही पाए।
राधा प्रेम विश्वास कृष्ण पर, रास का आन्नद भर-भर छाए,
जग में दोनों बदनाम बहुत है, अटूट विश्वास में सम्मान गोपाल समाया।
देव का वास विश्वास में पाया...

दर्पण टूटे, जोड़ न पाए, विश्वास बनी है खाई,
बिगड़े रिश्ते तितर-बितर, विश्वास जहाँ न पाई।
बीज बोया मेहनत कर, आस लगा अनाज भी पाए,
रात दिन करे चाकरी, अटूट विश्वास से श्रम फल हैं पाया l
देव का वास विश्वास में पाया...

रविन्द्र दुबे 'बाबु' - कोरबा (छत्तीसगढ़)

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