मैं हारा हुआ एक भिक्षुक - कविता - राघवेंद्र सिंह

मैं हारा हुआ एक भिक्षुक,
काया मेरी अधमरी हुई।
मत पूछो मेरा हाल कोई,
कितनी करुणा है भरी हुई।

न ठौर ठिकाना है कोई,
व्याकुलता बढ़ती जाती है।
मेरी दुर्बलता से प्रतिक्षण,
वह भूख ही लड़ती जाती है।

दो टूक निवाले की ख़ातिर,
दर-दर ही भटका करता हूँ।
दो टूक कलेजे के कर कर,
मैं अपना पेट ही मलता हूँ।

हर पल हर क्षण इस दुनिया से,
सुनता हूँ बातें खरी हुई।
मत पूछो मेरा हाल कोई,
कितनी करुणा है भरी हुई।

दे देता कोई रूखी ही,
रूखी से काम चलाते हैं।
इस भूख के आगे ही झुककर,
हम पेट को ही समझाते हैं।

ऊपरवाले ने ही लिख दी,
दो वक़्त निवाले से दूरी।
इस लिए भटकता रहता हूँ,
कोई तो समझे मजबूरी।

है आस लिए दो रोटी की,
यह देह मेरी कुछ हरी हुई।
मत पूछो मेरा हाल कोई,
कितनी करुणा है भरी हुई।

तन ढकने की है आस नहीं,
बस भूख की ही लाचारी है।
आँसू पीकर रह जाते हम,
वेदना हृदय पर भारी है।

कल शायद ही भूख मिटेगी,
इसी आस में कटती रात।
आस लिए ही सह जाते हम,
सर्दी धूप और बरसात।

भूख की तड़पन वह ही जाने,
जो काया अधमरी हुई।
मत पूछो मेरा हाल कोई, 
कितनी करुणा है भरी हुई।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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