राकेश कुशवाहा राही - ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)
हरसिंगार झर रहा है - कविता - राकेश कुशवाहा राही
शनिवार, जुलाई 30, 2022
वर्षों बाद मैं
अपनी माटी से मिला तो
ख़ुशबुओं से लगा
कोई इंतज़ार कर रहा है।
सुबह-सुबह
हरसिंगार झर रहा है
उसकी ख़ुशबू से
घर आँगन महक रहा है।
ओंस की नमी से
पुलकित पुष्पों की श्वेतता
धरा पर बिछी है जैसे
फूलों से बुनी चादर।
क्षितिज पर
सूरज की लालिमा
जीवन में रंग घोलने
बादलों से घुल मिल रही है।
कोमल पुष्पों में
कई चेहरे बचपन के
चिर परिचित सम्मुख
मेरी यादों में उभर रहे है।
लघुता का थोड़ा
अनुभव हृदय कर रहा है
हरसिंगार का जीवन
मुझसे अधिक सार्थक रहा है।
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