हरसिंगार झर रहा है - कविता - राकेश कुशवाहा राही

वर्षों बाद मैं
अपनी माटी से मिला तो
ख़ुशबुओं से लगा
कोई इंतज़ार कर रहा है। 

सुबह-सुबह 
हरसिंगार झर रहा है
उसकी ख़ुशबू से
घर आँगन महक रहा है। 

ओंस की नमी से
पुलकित पुष्पों की श्वेतता
धरा पर बिछी है जैसे
फूलों से बुनी चादर। 

क्षितिज पर 
सूरज की लालिमा 
जीवन में रंग घोलने 
बादलों से घुल मिल रही है। 

कोमल पुष्पों में 
कई चेहरे बचपन के
चिर परिचित सम्मुख 
मेरी यादों में उभर रहे है। 

लघुता का थोड़ा
अनुभव हृदय कर रहा है
हरसिंगार का जीवन 
मुझसे अधिक सार्थक रहा है। 

राकेश कुशवाहा राही - ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)

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