अब साज सँवार नहीं करना - गीत - शुचि गुप्ता

लख खंडित दर्पण रूप कहे, अब साज सँवार नहीं करना।
विधिना जब घोर कलंक दिया, तम मावस रात नहीं टरना।

पकड़ा जब भी निज स्वप्न कभी,
मम भाग सदा खिलवाड़ किया।
हर बार प्रयास किए कितने,
कुसुमाकर सौम्य उजाड़ किया।
मिलते-मिलते फिर राह रुकी, 
बनता हर काम बिगाड़ किया।
मृदु कोमल कंचन से हृद को,
सम प्रस्तर शुष्क पहाड़  किया।

रस गंध विहीन हुई अब तो, मकरंद पराग सभी झरना।
लख खंडित दर्पण रूप कहे, अब साज सँवार नहीं करना।
   
अभिशाप सिंदूर महावर को ,
हर उत्सव शोक सदा बढ़ता।
जग बंधन मोह निरर्थक सा,
दुख कारण एक नया गढ़ता।
शत लाल गुलाब खिले नित ही ,
मम अंश सदा कंटक पड़ता।
पद चाप सुनी सुख द्वार खड़ा,
ठिठका रुकता हठ पे अड़ता।

बन भिक्षुक घूम रही कबसे, मुझको अब पाँव नहीं परना।
लख खंडित दर्पण रूप कहे, अब साज सँवार नहीं करना।

शुभ चिन्ह सुभाग विलोपित हैं,
मम चूनर में कुछ रंग नहीं।
सब भूषण दूर हुए कब के, 
मणि मानिक का अब संग नहीं।        
विपरीत सुराज सुयोग कहाँ,
ग्रह नीच चलें गति भंग नहीं।
मन की बगिया पतझार रही,
उर में शुचि एक उमंग नहीं।

वह अंतिम सेज मिले मुझको, इस जीवन शेष  रहा मरना।
लख खंडित दर्पण रूप कहे, अब साज सँवार नहीं करना।

शुचि गुप्ता - कानपुर (उत्तरप्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos