धीरेंद्र पांचाल - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
बदरिया - कविता - धीरेन्द्र पांचाल
बुधवार, अप्रैल 13, 2022
चान छुपउले जाली कहवाँ, घुँघटा तनिक उठाव।
बदरिया हमरो केने आव, बदरिया हमरो केने आव।
झुलस रहल धरती के काया छाया ना भगवान लगे।
तोहरे बिना ये हो बदरी सब कुछ अब सुनसान लगे।
लह-लह लहके रेह सिवाने कातर नज़र हटाव।
बदरिया हमरो केने आव, बदरिया हमरो केने आव।
पेंड़ कटत बा निशिदिन चिरईन के खोतवा बिरान भइल।
खेत कियारी नदी कछारी सगरों जस शमशान भईल।
जार रहल बा देहियाँ सूरज के तनिका समुझाव।
बदरिया हमरो केने आव, बदरिया हमरो केने आव।
गोरुअन के सुबिधा के दुबिधा घास खंचोली पाईं ना।
गाय के थाने दूध ना उतरे दुःख बतावल जाई ना।
पुरुवा के संग चुरुवा रोपले ठाढ़ ह पूरा गाँव।
बदरिया हमरो केने आव, बदरिया हमरो केने आव।
अइसन का भकुआय गयल बाड़ू हमके समुझावा।
हिय में कउनो पीर होखे त आवा बइठ बतावा।
सुख दुःख मिलके बाँट लिहल जाई पिपरा के छाँव।
बदरिया हमरो केने आव, बदरिया हमरो केने आव।
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