जल जीवन है इसे बचाएँ - आलेख - डॉ॰ शंकरलाल शास्त्री

अप्सु भेषजम्। जल औषधि है। जल का ही दूसरा नाम जीवन भी है। समूचे विश्व में प्रतिवर्ष विश्व जल दिवस मनाया जाता है। चारों और बड़े-बड़े विज्ञापन छापे जाते हैं, जल दिवस के दिन जल बचाने की बात की जाती है पर क्या एक दिन के चिंतन और जागरूकता से हम कल के लिए जल बचा पाएँगे? प्रायः मैं अपने उद्बोधनों और लेखों में इस बात का ज़िक्र करते आया हूँ कि घर में होने वाले हर मांगलिक कार्य में जल की पूजा की जाती है। यदि पिछले तीन-चार दशकों की बात करें तो स्मरण हो आती हैं वे यादें जब जलस्रोतों के थोड़े ही नीचे से जल निकाल  
लिया करते थे। हम बचपन में अपने बड़ों के साथ अपने पैतृक गाँव ढाणी कुशालीराम, किशोरपुरा से क़रीब बीस किलोमीटर दूर शाहपुरा पैदल यात्रा करते थे। रास्ते में रामपुरा की नदी आती। नदी के बीचों-बीच एक कुई बनी थी। वहाँ रस्सी से बंधी काठडी से पानी निकालते। चूँकि उस दौर में तीन-चार हाथ नीचे ही नदियों जैसे स्थलों में पानी होता था। पानी निकाल कर हाथ से (ओक से) पानी पीते। पानी इतना मीठा और स्वादिष्ट होता कि पीते ही सारी थकान दूर हो जाती। इसी तरह किशोरपुरा से बड़ी बुआ जी के यहाँ आंतेला जाते। रास्ते में शिव मंदिर और पानी की कुई होती। वहाँ भी ऐसे ही पानी निकालते मात्र दो-तीन हाथ नीचे ही पानी होता। पानी पीकर बरगद बाबा के नीचे विश्राम करते फिर अगले पड़ाव के लिए रवाना होते। आज वह कुई वीरान और सूखी पड़ी है। पानी रसातल में गया। विश्व जल दिवस के मौके पर प्रातः काल ही प्राचीन जल स्रोतों को देखने और जल स्रोतों को बचाने के लिए हम निस्वार्थ भाव से अपने पैतृक गाँव ढाणी कुशालीराम किशोरपुरा के लिए सपरिवार निकल पड़े। जहाँ अपना बचपन बिताया था जिन जल स्रोतों का पानी पीकर हम बड़े हुए। जिन जल स्रोतों के पास बैठकर  बचपन बिताया था तथा प्रकृति माँ की शरण में जा पाए। कुएँ के ढाणे के पास खड़े होकर ख़ूब नहाया करते थे। चार दशक पुराने उस कुएँ को भी देखा। हम स्कूल के छोटे-छोटे बाल सखा घर आते और कुएँ की ढाणे पर चरसा में पानी पीते। पानी कितना मीठा और पाचक होता था कहने की आवश्यकता नहीं। विश्व जल दिवस को गाँव के पुराने जल स्रोतों को देख मन उदास था। आज दो-तीन दशक पुरानी यादें ताज़ा होने लगी जब चारों ओर खेतों में हरियाली छाई  रहती थी। रात्रि में जब घर के बाहर चारपाई डालकर सोते कभी राधू काका से तो कभी अर्जुन काका, मदन काका आदि से राजा-रानी की क़िस्से सुनते थे। खेत में पानी दिया जाता था तो गर्मी के मौसम में रात्रि को सोते समय सुकून और शांति देने वाली हवा चला करती किंतु वे दिन अब  कहाँ? आज कुएँ सूने और वीरान पड़े थे। पानी की बूँद-बूँद की सीख देने वाली दादी माँ गैदी देवी अब इस दुनिया में न थी। पिताजी और चाचाजी कैसे जल शुद्धि के लिए हमें सिखाया करते थे। वर्षा जल को एकत्रित करने के लिए हमें प्रेरित करते थे। वे हमें बचपन की गूँजती मधुर किलकारियाँ और पाटी-पोथी लेकर स्कूल जाते देख कितने ख़ुश होते थे। विधाता ने बचपन में ही पिताजी का साया हमसे छीन लिया था। तब से प्रकृति माँ की छाँव और जल देव का अमृत पान का हम जीवन जी पा रहे हैं। क्यों न हम फिर से हमारे प्राचीन जल स्रोतों को बचाने और जल संरक्षण का संकल्प लें। आत्मा ख़ुशी से झूम उठेगी
इसी विचार के साथ ढाणी कुशालीराम, ग्राम किशोरपुरा   मेरे पैतृक गाँव में चाचा जी शंभू दयाल जी शर्मा, अर्जुन लाल जी शर्मा, वार्ड पार्षद श्रीमती सीता देवी चाची जी, इसी प्रकार मुकेश, सुभाष, विनोद, विक्रम, सुनील, पूरण भाइयों व श्रीमती सरिता शर्मा धर्मपत्नी, पुत्र सौम्य और प्रियांशु के साथ गाँव में बैठकर जनहित के लिए विचार मंथन किया। सच में यदि हम कल के लिए आज न चेते तो वह दिन दूर नहीं जब पानी की एक-एक बूँद के लिए हमें कोसों दूर तक पलायन करना होगा। ऐसी स्थिति आज बहुत से स्थानों पर आ चुकी है। घर-घर जल मिशन कब शुरू होगा यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। पिछले दो वर्षों से हमारे घर के नल में पानी की एक बूँद भी नसीब नहीं। टैंकरों की मनमर्ज़ी के अनुसार पैसे देकर पानी पीते हैं। हमें जल बचाने के लिए जल स्रोतों को संरक्षित करने का संकल्प लेना होगा। मैंने गांव के क़रीब उस जोहड़ को भी देखा जहाँ बचपन में गायें चराया करता था। एक सूती कपड़े में दो ठंडी रोटियाँ और दो प्याज गठरी में बाँधकर माताजी हमें दिया करती थीं। गायें जंगल में चरकर जोहड़ में छकर पानी पीतीं। आज पानी न के बराबर था। हमारी संस्कृति में कुओं को धार्मिकता से जोड़ा गया है। पहले कुएँ खुदवाए जाना और बनवाना बहुत सम्मान की बात मानी जाती थी। भगवान् भास्कर की किरणें कुओं में समाए जल में पड़ती। इसलिए हम स्वस्थ रहते थे। आज गिरता भूजल  स्तर चिंता का विषय है इसे हमें संरक्षित करना ही होगा।
 
डॉ॰ शंकरलाल शास्त्री - जयपुर (राजस्थान)

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