धूमिल सी होने लगी होली की यादें - आलेख - डॉ॰ शंकरलाल शास्त्री

होली का नाम सुनते ही चंग और झांझ, मंजीरों के साथ धमाल का गाया जाना हमें आज भी अच्छे से याद है। बचपन की उन स्मृतियों को ताज़ा करते हैं तो हास्य और मनोरंजन से सराबोर मन को प्रसन्न कर देने वाली मधुर स्मृतियाँ ताज़ा होने लगती हैं। हम स्कूल जाकर आते रात्रि में घर के बड़े ब्यालू (बयारी) कर घर के बाहर अलाव जलाकर बैठते। ढप को तपाया जाता। झांझ-मंजीरे बजाए जाते और ढप के साथ टांची लगाकर हम भी ढप बजाने लगते। जब घर के बड़ों को ढप बजाते देखते तो बारीकी से बजाने वाले की अंगुलियों की छाप देखी जाती और कुछ ही दिनों में अच्छे से ढ़प पर थपकी मारना सीख पाए। उन दिनों में स्वांग प्रायः सभी जगह होते थे। कभी घोड़े की सवारी तो कभी ऊंट की या कभी चोर-सिपाही जैसे न जाने कितने स्वांग रचे जाते। धमाल बोली जाती। हम भी धमाल गाने लगते। होली के त्यौहार पर सात समंदर पार से भी लोग अपने घर आते हैं और प्रेम, सौहार्द और भाईचारे का संदेश देते हैं। होली के दिन सब यथाशक्ति नए वस्त्र धारण कर दिन भर उमंग, उल्लास और ख़ुशी से भरे इस पर्व का आनंद लेते हैं।

पुराणों में होली का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में ऐसे ही दृश्य देखने को मिल जाएँगे। वसंत सौंदर्य का नाद तो यत्र-तत्र सर्वत्र प्राचीन वांग्मय में फैला है। होलिका दहन के मुहूर्त के अनुरूप ढप पर थपकी मारते, मंजीरे बजाते, धमाल गाते "उठ मिल लै भरत भैया हर आयो...। होली आई रे फागण...। जैसी धमाल की गूँज सुनाई देती। होलिका का दहन किया जाता घर के आसपास खेतों में उगी गेंहू/जौ की बालियाँ होलिका की आग में होला (आधी पकी हुई) सेकी जाती। याने प्रकृति के इस उपहार को उन्हें अर्घ्य रुप में प्रकृति माँ को ही समर्पित करते हैं। होलिका के बीच में प्रहलाद का प्रतीकात्मक दाण्डा लगाया जाता। जैसे ही होली जलती प्रहलाद को निकाल लिया जाता और जल स्रोतों के बीच डाल दिया जाता। कहने का तात्पर्य इतना है कि ईश्वर का भक्त प्रहलाद बच जाता है। माने "जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोय"।  वहीं जौ की यवलियों का उपयोग हमारी कृषि की ख़ुशहाली वहीं भक्त प्रहलाद भक्ति योग में रमे रहने का संदेश देते हैं। होलिका के परिक्रमा के बाद बड़ों के चरण स्पर्श करते। होली के पर्व पर आसपास के लोग एकत्रित होते। उस दिन आपसी बैर भाव रखने वाले भी बड़ों से आशीर्वाद लेते, गले मिलते और पल भर में ही सब गिले-शिकवे दूर हो जाते। शत्रुता और छल का बोझ ढोते आज के मानव को ऐसे त्योहारों से सीख लेनी चाहिए। उस कालखंड में जिस रूप में आज षड्यंत्रों का गहरा जाल बुना जाने लगा है न था। न ही किसी को चंद रुपयों की ख़ातिर काले वीडियो बनाकर हनीट्रैप करते, न किसी को  छल व दुराग्रह भाव के चलते छलते। होली के रंग में रंगे आपसी मनमुटाव को भुलाकर गले मिलते हैं। यह पर्व ऐसे ही संदेशों से भरे हैं। दूसरे दिन धूलण्डी को पूरी की पूरी टोली रंगों में रंगती। प्यार के रंगों में रंगे उन रंगों के साथ जीवन की ख़ुशियों के रंग भी इतने गहरे होते कि उतरने का नाम न लेते। आज भी रंग लगाए जाते हैं। होली भी मनाई जाती है। पर मानवीय रिश्तो के रंग बदरंग वह फीके पड़ने  लगे हैं।
फाल्गुनी बयार का आनंद मन-मस्तिष्क में नैराश्य का ख़ात्मा करता है। ख़ुशियों के रंग भरता है। हँसी ठिठोली से भरा धूलण्डी पर्व आपसी प्रेम व भाईचारे का पाठ पढ़ाता है किंतु दुर्भाग्य कि स्थिति यह है कि आजकल ऐसे अवसरों पर बड़ी चतुराई से लोग दूसरों को छलते हैं। यह उचित नहीं है। ऐसे पर्व ख़ुशियों के रंग भरते हैं। प्रेम और समर्पण का संदेश देते हैं। स्वस्थ रहने व मानसिक विकारों से दूरी बनाए रखने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे अवसरों को आजकल छलिया अपनी छल-बाजीगरी से छलते हुए बड़े यत्न से दूसरों को पीड़ित करते हैं। ये पर्व हमें ऐसे ही षड्यंत्रों और छल बाजीगरी से दूर रहकर प्रेम की मिठास भरने का संदेश देते हैं। वर्षों पुरानी ग्राम्य परंपराएँ आज भी जब स्मरण हो आती हैं तो अपनापन का एहसास होता है। बड़े बुजुर्ग प्यार से हमें भोजन कराते, बतियाते और धूलंडी के अगले ही दिन बाबा गंगादास के मेले की तैयारी की जाती। घर के बड़े लोग मेला ख़र्ची देते दादी माँ और माँ के पल्लू से इकट्ठे किए रुपए ख़र्चे के लिए हमें सौंप दिए जाते। पाँच दिन पहले माँ के साथ घर को मिट्टी से लीपते और होली के स्वागत के लिए घर की साफ़-सफ़ाई कर स्वच्छता का संदेश देते। घर की स्वच्छता से बीमारियों से बचा जा सकता है। यह तो हुई बाहरी सफ़ाई की बात पर आज हमारे अंतर्मन की सफ़ाई की आवश्यकता है।
आज लोगों का मन उस अनार के फल की तरह है जो बाहर से तो बिल्कुल साफ़ दिखता है किंतु अंदर से जैसे उसमें एक-एक कर बीज बिखरते हैं ठीक वैसे ही हमारे मन के अंदर भी ईर्ष्या, द्वेष और दूसरों के प्रति बर्बादी के  ख़तरनाक विकार विषैले बीजों की तरह फैले हैं जो हमें  मानसिक रूप से बीमार कर देते हैं। ऐसे ही घातक विकारों को होलिका की आग में जला डालने का उत्तम दिन है। इसके बाद निर्मल मन से होली मनाइए। सारा लदा भार कम हो जाएगा। सुकून और शांति का अहसास होगा। पर यह भी तो सच है "स्वभाव बदलना दुर्लभ है।" जिसकी प्रकृति दूसरों को क्षति पहुँचाने की है। उन्हें चैन तभी तो मिलता है पर उन्हें यह भी सोचना  होगा कि दूसरों को पीड़ा देकर स्वयं की ख़ुशियों का जश्न मनाना, बुद्धिमता नहीं अवसाद की बीमारी का अंतिम छोर है। ऐसे में ख़ुद को मानसिक रोगी ख़ुद तो मानसिक रोगी बनते ही हैं  दूसरों के जीवन में भी ऐसे ही दृश्य उपस्थित करते हैं। होली जैसा पर्व ख़ुशियों के रंग भरने का संदेश देता है  बदरंग करने का नहीं। सच्चे अर्थों में यह पर्व मैत्रीभाव का संदेश देता है। यह प्रकृति का महापर्व है। जो प्रकृति के संरक्षण की भी सीख देता है।

डॉ॰ शंकरलाल शास्त्री - जयपुर (राजस्थान)

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