अंतःपीड़ा - कविता - प्रवीन 'पथिक'

मैं जानता हूँ;
तेरी असहमति कहीं न कहीं,
आँधी के पश्चात 
होने वाली रिमझिम बारिश से है।
तेरी पलकों का झुकना,
दोपहर के सपने जैसे हैं।
तेरी मौन अभिव्यक्ति,
हृदय में उठते हज़ारों प्रश्नों की सस्वर अभिव्यक्ति है।
और तुम्हारी बातें,
बातों का संग्रह ही तो है।
सदियों से कराहती मेरी आकाँक्षाएँ,
राह ताक रही थीं;
अपने पूर्ण होने की आशा में।
अकस्मात!
तेरी एक बात,
धो गई मेरे सपनों को।
जिसे बड़े यत्नपूर्वक सजाया था।
पर, शायद तू नही जानती
सागर में उठता तूफ़ान,
मेघों की गर्जना,
बिजलियों का चमकना,
और बूँदों का बरसना;
कोई संयोग नहीं होता।
अपितु;
एक प्रेमी का दूसरे प्रेमी से,
की गई अस्वीकृति का परिणाम ही तो है।
जिसे वो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में,
शामिल कर लेता है।
हमेशा के लिए;
अपने प्रेम को जीवित रखने के लिए...

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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