सुबह हो रही है - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति

उठो! मेरे आत्मा के सूरज
सुबह हो रही है
तरु शिखाओं की ऊपरी फुनगियों पर,
उतर रही है-
उजले सूरज की चंचल धूप
कोमल दल पर किरनें,
दुब पर टँगी ओस की
झिलमिलाती, सौम्य रूप

मन्दिर के कपाट से खेल रही है
सुनहली रश्मियाँ
पवित्र ग्रन्थ के पन्नों पर
फिसलती है, सन्त-ऋषियों की आँखें
स्तुति तलाश रही है शब्द-
ऋचा की पाँखें
और तुम...

उठो मेरे चंचल गीत
देख, देवताओं की स्तुति हो रहा है
पवित्र श्लोक पढ़े जा रहे हैं
निर्माण के शिल्प गढ़े जा रहे हैं
बरस रही है अमृत सुधा की धार
करुण कंठ से रुग्ण पुकार
ये कैसा है, चीत्कार?

जन-जन का, गाँव के तन का
क्या मार के भय से?
तुम मेमना बनोगे
या सभ्यता के महल से
तलाश का दृष्टान्त बनोगे
उपद्रव की कहानी बनते
क्यों चुप हो जाता है गाँव?

उठ मेरे प्राण
अब सुबह हुई
सुबह का स्वप्निल उजाला
काले अंधियारे को हटा
एक नए प्रकाश को देख

पहली बारिश से धुल जाने के बाद
अम्बर कितना साफ़ और सपनीला दिखता है
धरती फिर काट रही है
ईर्ष्या की फसल
शब्द वेदना के आँसू रो रहा है
आदमीयत, अपना साहस खो रहा है
बचाव दल का लोक लुभावन
भुख से बेज़ार हुए लोगों को,
दे रहा आश्वासन
अविश्वास की डायरी से
मिटा दिए गए हैं
या गुम कर दिए गए हैं
विश्वास का चिंतन
उठ मेरे दोस्त आओ
सुबह हो रही है 
पर आश्चर्य
वह अपनी आभा खो रही है।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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