मुक़द्दस घड़ी हैं 17 - कविता - कर्मवीर सिरोवा

सर्द हवा का सुरूर, धनक की ये ग़ज़ब पैहन छाई हैं,
आँखों में चमक लबों पे गीत वाह क्या बहार आई हैं।

मिरे तसब्बुरात में जो तितली उड़ रही थी सजीली सी,
वो उम्रभर घर के आँगन रूपी बगीचे में रहने आई हैं।

ख़ुराक-ए-दीदार से मेरे जिस्म में जान डालने आई हैं,
बाद मुद्दतों के ये सर्द हवाएँ मेरा हाल जानने आई हैं।

रुसवा था मिरा आईना बार-बार अक्स मिरा देखकर,
अब तो आईने के चेहरे में भी ग़ज़ब की रंगत आई हैं।

दिल को चुभा रही है हिज़्र की ये घड़ियाँ सुई बनकर,
शायद मिरी आँखों में नमी बाक़ी हैं, ख़बर हो आई हैं।

कुछ दिनों से दिल में दुल्हन देखने की उमंग जागी हैं, 
मुकद्दस घड़ी हैं 17, ख़्वाहिश मुक़म्मल होने आई हैं।

उम्रभर कवि ने दुआओं में उम्मीदों की डमरू बजाई हैं,
तब रब ने कवि-क्रश की ये ख़ूबसूरत जोड़ी बनाई हैं।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos