यक्ष प्रश्न - लेख - रामासुंदरम

स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ, राष्ट्र बड़ी जोर शोर से मना रहा है। हर तरफ़ प्रसन्नता एवं उल्लास का माहौल है। देशभक्ति के नाम पर एक स्फूर्ति दिखाई दे रही है।

किन्तु भारत माता का मन खिन्न सा है। यह उल्लास, यह स्फूर्ति एवं माहौल, उन्हें कृत्रिम सा दिख रहा है। माँ तो आख़िर माँ ही होती, हमारे विचारों एवं नीयतों में जब कभी साधारण सा परिवर्तन आता है, तो उसकी नोटिस सबसे पहले माँ ही लेती है। पर बोलती कुछ नहीं। यही हाल भारत माँ का है।

पर आज उनसे नहीं रह गया। आवाम के रूप में पार्टीवाले जब माँ की चहारदीवारी में तिरंगा लगाने आए तो बस उनसे नहीं रह गया। बोलीं "आज ही तुम्हे मेरी स्वतंत्रता की याद आ रही है। बाक़ी दिन तो तुम अपनी आज़ादी को सर्वोपरि बताते हुए, मुझे धत बताते हो।"

"परंतु माँ, हम भी तो आपके साथ ही आज़ाद हुए थे। फिर हमारी स्वतंत्रता से आपको क्षोभ क्यों"
भारत माता समझ गईं कि आज़ादी, आवाम पर नशे का काम कर रही है, अमृत का नही। ग़ुस्से में बोली "आज़ादी मुझे मिली थी या कहो राष्ट्र को मिली थी, तुमको नहीं। तुम्हारी आज़ादी मेरी स्वतंत्रता का एक डेरीवेटिव मात्र है। यदि मैं स्वतंत्र हों तभी तुम स्वतंत्र हो। मुझसे जुदा तुम अपनी आज़ादी की बात नहीं कर सकते।"
"क्या कहती हो तुम, अगर हम आज़ाद नहीं तो फिर आज़ादी किस लिए है। और फिर तुम किस आज़ादी की बात कर रही हो।"
"मैं बात कर रही हूँ, एक सामूहिक आज़ादी की, एक व्यक्ति विशेष की आज़ादी जिसमे निहित है। उस आज़ादी की नहीं, जिसमें एक का अधिकार दूसरे को खा जाए, एक का फ़लसफ़ा किसी और के लिए विडंबना बन जाए, या फिर एक के विचार दूसरे को बेड़ियों में जकड़ दें। यदि यही स्वतंत्रता तुमने परिभाषित की है तो मैं आहत हूँ, पीड़ित हूँ, हर तरह से रुग्ण हूँ। तुम्हारी स्वतंत्रता तभी अर्थपूर्ण है, जब मैं कहीं से खंडित न हूँ, न भौतिक रूप से न भावनात्मक रूप से।

माँ की आँखों में आँसू देख कर आवाम ठिठक गई। फिर बोली "झंडे तो लगवा लो, इसमें क्या प्रॉब्लम है"
 
आवाम के बातचीत के तौर तरीक़े ने माँ की त्रासदी बढा दी। खीज कर बोली "जिस आज़ादी का नाम पर यह तिरंगा तुम लेकर घूम रही हो, वह आज़ादी तुम्हे 1947 में नहीं मिली थी। यह झंडा तुम्हारे हाथ में तुम्हारे इस आकलन एवं दम्भ के साथ व्यथित है, अवसाद से भर गया है।" 
आवाम ने भारत माँ का यह रौद्र रूप कभी भी नहीं देखा था, न सुना था। पर वह ढीठ तो थी ही। तिरंगा लेकर वापिस आ गई। उसका सोंचना था कि अगर हम आज़ाद नहीं तो राष्ट्र की आज़ादी कैसी। और फिर अगर हम आज़ादी का इज़हार स्वयं नहीं करेंगे तो कौन करेगा। दुगुने उत्साह या फिर कहिए निकम्मेपन से उसने व्यक्तिगत आज़ादी का तांडव मचाना प्रारम्भ कर दिया।

भारत माँ इस तर्क विहीन वक्तव्य से टसुए बहा रही थी। कह रही थी कि यदि आवाम इसी तरह जुटी रही तो फिर एक दिन मैं अपने ही घर मे जकड़ जाऊँगी। उसका क्रंदन दूर दूर उस बियाबान जंगल मे सुनाई दे रहा था।

मित्रों, भारत माँ के इस क्रंदन पर आपको यदि दुःख है क्षोभ है और पीड़ा की अनुभूति आप कर रहे हैं, तो फिर समीक्षा कीजिए जो आप और हम आज़ादी के नाम पर कर रहे हैं।
यदि माँ के इस दुःख एवं पीड़ा पर हम मलहम लगाना चाहते हैं तो, आइए हमे मिली स्वतंत्रता को पुनः परिभाषित करें एवं स्वीकारें की स्वतंत्रता "हमारी" है "मेरी" नहीं। यदि हमारे स्वतंत्रता के उल्लास, हमारे किसी देशवासी पड़ोसी को क्षुब्ध करें तो फिर यह उल्लास नहीं, अट्टहास है, इस शाश्वत तथ्य को स्वीकारें। 

क्या आप ऐसा करेंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है।

आज स्वतंत्रता दिवस के कुछ क्षणों में इस मर्यादित प्रश्न का उद्बोधन अपने से अवश्य करें। तभी हम "भारत माता की जय" कहने के सही हक़दार होंगें।

रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos