प्रबल चाह - कविता - रूचिका राय

असीमित इच्छाएँ, अनगिनत सपने
प्रबल चाह उनकी पूर्ति की।
रिश्तों से परिपूर्ण हो जीवन,
नही कभी द्वेष रहे जीवन की।
प्रेम पूरित हो जीवन अपना सदा,
यही छोटी सी दुआ मेरे मन की।
हारी बीमारी से न जूझे कभी कोई,
रोग-मुक्त हो हर तन ही,
पीड़ा के अतिरेक से जूझे न कोई मन,
बस यही चाह मेरे मन की।
कोई हो ऐसा जो समझ सके हर पल
हमारे ही मौन को।
नही मुखर होना पड़े कभी भी,
किंतु, काश, परंतु से मुक्त जीवन हो।
प्रबल चाह संवेदनाओं को समझूँ मैं
जीवन के अंतिम क्षण तक।
काम आ सके यह तन मेरा सदा,
कष्टकारी पलों में हर जन तक।
ढाल बना मुस्कान से हौसला दूँ,
यही पूँजी सदा काम आएँ।
अभेद्य हौसलों की दीवार बन कर,
हर जीवन को सबल बना जाएँ।
बस यही प्रबल चाह मेरे मन की,
इंसानियत का मर्म समझूँ।
इंसानियत का मर्म समझाऊँ।
बन प्रेरणा सदा ही काम सभी के आऊँ।

रूचिका राय - सिवान (बिहार)

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