सुख - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

निर्धन को दौलत
मिल जावे वह सुख का 
आनंद कुछ और है।
सूनी गोदी अगर भर जावे
तो माँ के सुख का अलग शोर है।
जुदा प्रेमियों का मिलन
आमोद ही आमोद है, 
बिछड़े सगे सम्बन्धियों का मेल
अति हर्ष और प्रमोद है।
भक्त को अगर भगवान मिल जावे
फिर तो आनंद ही आनंद का ठोर है, 
निर्धन को दौलत मिल जावे
वह सुख का आनंद कुछ और है।
प्रहलाद को कंटक भी फूल लगते थे
और अडिग रहकर साधना का लुत्फ़ उठाया, 
सुदामा ग़रीब होते हुए भी
प्रसन्नता से अपने स्वाभीमान को बचाया।
सुख और ख़ुशी ही तो है जो
माँ बाप को भुला कर कर्तव्य का किया न ग़ौर है, 
निर्धन को दौलत मिल जावे तो
वह सुख का आनंद कुछ और है।
बहुत से लोग सुख को पाकर
अपने इष्ट से करते है किनारा,
कुछ लोग ऐसे भी है जो अति सुख पाकर
अपनों को छोड़ते है बे-सहारा।
प्रिये साथियों सुख को संयम
से राखियो कब क्या हो जावे
यही समय का दौर है, 
निर्धन को दौलत मिल जावे
उस सुख का आनंद कुछ और है।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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