प्रेम-प्रस्ताव - कविता - प्रवीन "पथिक"

अच्छा! क्या कहा? तुम मुझसे प्रेम करती हो!
सचमुच प्रेम करती हो?
क्या दुनिया के समक्ष,
अपने प्रेम को प्रदर्शित कर सकती हो?
कदाचित् मै तुम्हारे प्रेम को स्वीकार कर भी लूँ!
तो क्या? तुम विषम परिस्थितियों में भी, 
मेरे साथ रहने के लिए संकल्पित हो?
बहुतों ने आजीवन साथ देने का वचन दिया;
परंतु, मध्य मार्ग से ही मुकर गए अपने वादों से।
क्या तुम वचनबद्ध हो?
आजीवन साथ निभाओगी!
कभी हमें तन्हा छोड़ तो न जाओगी।
आज ये सारे प्रश्न,
मुझे उस पाषाण-हृदय का स्मरण करा रहे हैं,
जिसके प्यार ने मुझे मद्यप बनने पर विवश किया था।
मुझमें भी ऐब रहा,
कि जान छिड़कता था उस पर।
किन्तु, उसने तनिक भी महत्व नहीं दिया,
मेरी उठती अन्तर्भावनाओं को।
एक बार भी मेरी अश्रुओं की कसक नहीं समझा।
और तन्हा छोड़ गया सूनी राहों में।
क्या तुम इसकी पुनरावृत्ति तो नहीं करोगी?
वरना,
बिखर जाऊँगा मैं; काँच की तरह,
हमेशा के लिए!!

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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