छवि (भाग ७) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(७)
मानव योगी, मानव भोगी, मानव ईश समान हैं।
मानव सज्जन-दुर्जन, हिंसक, मूरख अरु विद्वान हैं।।
सामाजिक प्राणी है मानव, धार्मिक निष्ठावान भी।
कामी-पापी, अत्याचारी, अधम और हैवान भी।।

मानव चाहे जैसा भी हो, ईश्वर की संतान हैं।
ईश्वर के पावन नजरों में, मानवजाति समान हैं।।
कर्म मुताबिक फल है मिलता, मानव को निश्चित यही।
तय करना है मानव को ही, क्या ग़लत और क्या सही।।

कर्म सतत करता है मानव, इस व्यापक संसार में।
तन-मन-वाणी के माध्यम से, रत रहता संसार में।।
कर्म करो फल की मत सोचो, सबको यह संज्ञान है।
लेकिन मानव जान-बूझकर, बने हुए अनजान हैं।।

लघु-गुरु कोई कर्म न होता, मानव यदि यह जान ले।
प्रेम सहित अरु मुक्त भाव से, कर्म हेतु वह ठान ले।।
उसे न होती फल की चिंता, पाता वह आनंद है।
कर्म त्यागने की जो सोचे, वह महा बुद्धिमंद है।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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