सुना है कि तपना हो जीवन में ऐसा,
समंदर सा गहरा हो विश्वास ऐसा।
फिरता गया जो वक़्त का पहिया,
वो काल बली जो ऐसा भी आया।
बचपन के वो दिन कितने सुनहरे,
माँ की वो लोरी मीठी जो यादें।
कुदरत की वादी कितनी सुनहरी,
हरियाली सी कितनी सुनहरी।
गाँव का जोहड़ बरगद वो बाबा,
पेड़ों की फैली सुंदर वो छाया।
लौटे स्कूल से बरगद किनारे,
जोहड़ पे आती जो ग्वालों की गायें।
साँझ ढले जो बाड़े को जाती,
वो गौमाताएँ हमको सुहाती।
काली रातों पीछे सवेरा,
हर दुःख के पीछे सुख भी घनेरा।
हम में भी तो प्यार जो गहरा,
हम दो भाई एक जो बहना।
तोड़ा था दम तो पिता ने जो मेरे,
उठा था जो साया सर से हमारे।
दुःख में गुज़रे वो दिन जो ऐसे,
किसको बताएँ दुर्दिन वो ऐसे।
गाँव से जो हम शहर में यूँ आए,
जीवन को होमा मेहनत जो भाए।
ज्ञान की बाती जलने लगी जो,
ध्यान की थाती बढ़ने लगी जो।
काल का पहिया ऐसा जो आया,
रास न आया खूबी का पहिया।
ज़ुल्मों की दुनिया ऐसी जो आई,
छल से जो चल के क़हर ढहाई।
सुना था कि दुनिया दरियादिली की,
पर बेदर्दी दुनिया जो ऐसी।
सर को जो माँ की गोद में रखे,
रोता रहा मैं आँसू जो टपके।
जीवन का सीधा सार यही रे,
जीवन का गहरा ज्ञान यही रे।
लक्ष्य पे अपने चलते रहो रे,
मंज़िल मिलेगी सब्र तो लो रे।
डॉ. शंकरलाल शास्त्री - जयपुर (राजस्थान)