छवि (भाग ५) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(५)
उगते-डूबते हुए सूरज, सतरंगी किरणें लिए।
अंबर पे मुस्काता चंदा, मनमोहक सूरत लिए।।
शीश उठाए पर्वत नाना, शीतल वायु मनोहरा।
सुरभित पुष्पित बाग़-बग़ीचे, मनमोहिनी वसुंधरा।।

उमड़-घुमड़ते बादल नभ पे, गर्जन-वर्षण दामिनी।
मनभावन ऋतुएँ उपकारी, शुभ दिवस और यामिनी।
पंचभूत से निर्मित काया, ईश्वर का वरदान है।
जुड़ा हुआ यह आठ प्रकृति से, प्राणी की पहचान है।।

किसकी है यह नश्वर काया? प्रश्न जटिल है यह बड़ा।
जाननहार छिपे बैठे हैं, उलझन में मानव पड़ा।।
'मेरी काया''- मानव कहता, बिन जाने वह कौन है?
पंचभूत पर हक़ है किसका? इसी प्रश्न पर मौन हैं।।

तर्कयुक्त निर्णय की क्षमता, मानव में अतिकार है।
लेकिन मानव मन के अंदर, मौजूद अहंकार है।।
'मैं' 'मेरा' दुःख-दुर्दशा का, एक मात्र शुरुआत है।
मानव काया है ईश्वर का, यही पते की बात है।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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