चल रे घर चल नाविक अब तो
लौट चला है सूरज!
आशाओं की किरणें लेकर
निकला दूर गगन से,
दशों दिशाओं को चमकाया
उसने सधी लगन से।
तू भी निकला आँखों में भर
जीवन की मधु आशा,
तू भी भटका लहर लहर पर
दिन भर भूखा प्यासा।
पाना क्या था क्या ना पाना
खोज ढला है सूरज,
चल रे घर चल नाविक अब तो
लौट चला है सूरज!
आँगन में दो आँखें पागल
दीपक होकर बलतीं,
आहट आहट बेचैनी है
परछाईं तक छलतीं।
पीपल पत्तों सा धड़के है
कोमल मनवा पापी,
ये मत पूछो माला शुभ की
कैसे कैसे जापी।
उस आँचल के गीलेपन को
सोच गला है सूरज,
चल रे घर चल नाविक अब तो
लौट चला है सूरज!
जिसने भी दरवाजा लाँघा
जिसने थामा रस्ता,
उसकी पलकों में एक सपना
क़ीमत का या सस्ता।
मंज़िल पानी हो तो पग को
चलना तो पड़ता है,
मीठी मीठी एक अगन में
जलना तो पड़ता है।
एक चाँद की अभिलाषा में
रोज़ जला है सूरज,
चल रे घर चल नाविक अब तो
लौट चला है सूरज!
पूरी किसकी साध हुई है
पूरी किसकी आशा,
पाल रखा है दो पलकों ने
बरसों बरस बताशा।
आज नही तो कल पाएँगे
अपने मन का मोती,
आशा है ये खोकर के भी
कही नही है खोती।
भेंट साँझ को अरुण भोर की
ओर चला है सूरज,
चल रे घर चल नाविक अब तो
लौट चला है सूरज!
आलोकेश्वर चबडाल - दिबियापुर (उत्तर प्रदेश)