हमारी पारंपरिक संपदाओं को बचाएँ - आलेख - डॉ. शंकरलाल शास्त्री

नया नौ दिन और पुराना सौ दिन की कहावत भला आज कितनी सच होती जा रही है यह बात किसी से छिपी नहीं है। दशकों पूर्व जब हम घर से स्कूल आते-जाते समय कुए से बैलों द्वारा पानी निकाले जाने की कला को अपलक दृष्टि से निहारते थे। हम चरसा में पानी पीते तो कभी कुएँ के ढाणे में। पानी में बड़ी मिठास होती थी। हालांकि चरसा के पानी को पवित्र कार्यों में काम नहीं लेते थे। चारों ओर धरती माँ अपनी हरियाली चुनरी ओढ़े अपने अद्भुत सौंदर्य से हमारे मन को मुग्ध कर देती थी।

आज चारों ओर ज़मीनें वीरान और सूखी पड़ी हैं। समय का अंदाज़ा हरियाली से लगाया जाता है। अच्छी बारिश को हम अच्छा समय क़रार देते हैं। कोरोना की विषलहर ने हमें  कुदरत से छेड़खानी न करने सीख भी दी है। आज कुदरत से खिलवाड़ के चलते हम कोरोना जैसे हृदय विदारक दृश्य देख बिलख पड़ते हैं। आज पहले जैसे अपनेपन की आवश्यकता है। इसी कड़ी में अपनेपन से जुड़ी स्मृतियों से वे गाँव ढाणियों के चौपाल आज कितने प्रासंगिक हो सकते हैं, इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। हमें कोरोना जैसी आई आपदाओं में एक दूसरे का साथ देना चाहिए। 

हम वर्षा ऋतु के आगमन हेतु स्वागतातुर हैं। इसलिए यहाँ बात बारिश की करें तो जितनी अच्छी बारिश होगी हमारी धरती माँ के गर्भ में उतना ही जल अधिक संग्रहीत होगा।

वेदों में जल को औषधि माना है। आज पानी रसातल से भी रिक्त होता जा रहा है। मेघदूत में कालिदास ने यही बात प्रदूषित होते जल के बारे में उस कालखंड में ही कह दी थी। आज न पानी में मिठास है और न हमारी जीभ में। जैसा खाए अन्न वैसा पाएँ मन। सब्जियाँ और फल ख़तरनाक रासायनिकों से भरे हैं। पानी शुद्ध नहीं है जिसके चलते जल जनित न जाने कितनी ही बीमारियों ने घेर  लिया है। टाइफाइड, गुर्दे की पथरी सहित कई बीमारियाँ वहीं मिलावटी खाद्य सामग्री के चलते कैंसर जैसी घातक बीमारियों ने स्थान ले लिया है।

दशकों पूर्व घर की बड़ी महिलाएँ इसी तरह दादी और माँ सुबह जल्दी उठकर घर की चाकी से आटा पीसती थीं। दूर-दूर तक हम खेतों में जाकर रखवाली करते और खेलते, ऐसे में व्यायाम स्वयं ही हो जाता था। आज की पीढ़ी शायद पानी खींचने वाली लाव, चडस (चरसा) और चाकी का नाम सुनकर आश्चर्य महसूस करें। हमारे शास्त्रों में धरती माँ के गर्भ में छिपी बेश-क़ीमती संपदाओं के लिए कठोर नियम बनाए थे। पेड़ों को जड़ से काटने पर पूरी तरह निषेध है। आज भू-माफ़िया और खनिज-माफ़ियाओं ने हमारी धरती माँ को छलनी कर हमारी संपदाओं को    क्षति पहुँचाई है। ऐसे में आने वाली पीढ़ी तक हम इन्हें कितना बचा पाएँगे कहना मुश्किल है।

आज पहाड़ों के पहाड़ खाली हो गए हैं। मुझे याद आते हैं वे दिन जब मैं पिताजी के साथ मेरे गाँव किशोरपुरा से आंतेला पैदल बुआ जी के यहाँ 30 किलोमीटर जाते तो पहाड़ी वाले बालाजी के पाँच पत्थर चढा कर जाते और धोक देकर आशीर्वाद लेते। उन पत्थरों को चढ़ाने का सीधा सा अर्थ यही था कि प्रकृति द्वारा दी गई अनमोल संपदा को उसी की निगरानी में हम सौंप दें। आज धरती माँ की अपार संपदाएँ नष्ट हो रही हैं। बरसों बाद जब मैं गाँव जाकर बरगद बाबा को देखता हूँ तो मानो वह हमारे पुरखों की याद और हमारे बचपन की सौंधी सुगंध को हवा के मीठे झोखों के साथ पत्ते हिला कर हमें अपना शुभ आशीर्वाद  देता है। बचपन में कच्चे घर की तिबारी में पिताजी, राधू काका, शंभू काका, अर्जुन काका, मदन काका और बोदू काका से राजा-रानी और देवताओं के दिलचस्प क़िस्से हों या उनके अपनेपन की मधुर मिठास। चारों ओर अब तो ग़ायब सी होने लगी हैं। आख़िर कहाँ गया वो क़िस्से कहानियां? होली पर धमाल होती और स्वाँग निकाले जाने रिवाज था। उसका स्थान आज टेलीविजन और मोबाइल के मकड़जाल ने ले लिया है जिसके चलते न जाने कितनी बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं।

छोटी सी उम्र में पिता जी का साया उठ चुका था। मुझे आज भी जब वह घटना याद आती है जब मैं माताजी के साथ पिताजी के निधन पर ननिहाल से शाहपुरा से पैदल हमारे गाँव किशोरपुरा जा रहे थे। रास्ते में रामपुरा की नदी में ढलते सूरज की लालिमा को मैं एकटक निहार रहा था। माँ से पूछ लिया क्या माँ हमें पिताजी भगवान जी के वहाँ भी देख पा रहे हैं? माँ पिताजी होते तो मेरी पीठ थपथपाते भला हमने इतनी लंबी पदयात्रा जो की है। माँ की आँखों से आँसू की धारा बह चली थी। रास्ते में जाते बुजुर्गों ने माँ से कहा था, "बेटा डरना मत"। अभी दिन ढला नहीं है। वे बुजुर्ग मुझे गोद में लेकर ख़ूब रोए थे और मुझे ढाँढस बंधाया था। पत्थर भी रो पड़ता है जब ऐसी    घटनाएँ याद आती हैं किंतु आज समय के साथ इंसानी फ़ितरत किस कदर बदलती जा रही है इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

आज भी उन बुजुर्गों के अपनेपन का निश्चल प्रेम स्मरण हो आता है। अब इसका स्थान ईर्ष्या, छल, कपट, जासूसी और झूठी शानो शौकत ने लिया है।

आज की पीढ़ी को चाहिए की हमारे कल के लिए आज को बेहतर बनाएँ। धरती माँ की अनमोल विरासत को संभालें।  मानवीय रिश्तों को स्थान दें। बुजुर्गों की बैसाखी का सहारा बनें। निश्चित मानिए एक दिन इसका प्रतिफल हमें कई गुना बढ़ कर मिलेगा। सुख और शांति का पैग़ाम ख़ुद-ब-ख़ुद चला आएगा।

डॉ. शंकरलाल शास्त्री - जयपुर (राजस्थान)

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