अपने अपने ही कर्मफल
इक दिन तो सब चखते हैं।
दूजों के हित जो गढ्ढा खोदे
ख़ुद ही उसमें वह गिरता है।
बीतेंगे यह कठिन दिवस भी
दिन तो सबका ही फिरता है।
बोते जो पेड़ बबूल का हैं वे
कभी आम नहीं पा सकते हैं।
लूट रहे इस दुखद घड़ी में
क्या सिर पे रख ले जाएँगे।
धरा रहेगा यहीं सभी कुछ
धेला भी वे कहाँ ले पाएँगे।
अपने अपने ही कर्मफल
इक दिन तो सब चखते हैं।
सब जानबूझ करें मक्कारी
दवा तलक कुछ लूट रहे हैं।
लगता अमृत पीकर वे आए
मृतकों को देते न छूट रहे हैं।
अपने अपने कर्मों का लेखा
इक दिन तो सब ही भरते हैं।
डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली