मोगरे का फूल - नज़्म - कर्मवीर सिरोवा

चश्म-ओ-गोश के तट पे
चिड़िया चहचहाने आई,
रिज़्क़ लाज़िम हैं,
उठ ना, बख़्त कहता है।

अब तक ना सजी 
मिरी सुब्ह-ओ-जीस्त,
बग़ैर तिरे मिरा आलम 
तन्हा सा लगता हैं।

यूँ तो मसाफ़त कटी हैं 
बड़े उरूज-ओ-गुरूर से,
पर दिल के तलातुम में 
तिरा भँवर उठता हैं।

बड़ी उजलत थी 
मुझें घर सम्भालने की,
मैं अब थक गया हूँ, 
आईना रोज़ कहता हैं।

सुना हैं तिरे क़हक़हों से 
हर सुब्ह जागती हैं,
शायद तिरी तबस्सुम में 
मोगरे का फूल हँसता हैं।

हर रात आँखें गुज़रती हैं
नज़्मों से तिरी 'कर्मवीर',
शायद इन्हीं रतजगों में,
वो मह-रू अक्स रहता हैं।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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