पथिक - कविता - ममता रानी सिन्हा

हो यात्रा कितनी भी असहज,
पग-पग लथपथ हर जनपद,
बन सहनशीलता का काँटा,
स्वयं ही गरना पड़ता है,
पथिक को चलना पड़ता है।

हो ग्रीष्म का सूर्य बिच गगन,
उष्म प्रेम में वसुधा सुमग्न,
हर पग को मान अंतर्मन,
स्वयं ही जलना पड़ता है,
पथिक को चलना पड़ता है।

हो वसुधा गगन की वर्षासंधि,
आलिंगन हो धरा बने जलधि,
उस बाढ़प्रलय में रत अविरल,
पतवार बना दृढ साहस को,
स्वयं ही बहना पड़ता है,
पथिक को चलना पड़ता है।

हो हिमव्यार से वसुधा विकल,
जड़ हो जाए हृदय रक्तांचल,
तब जला स्वाभिमान अनल,
स्वयं ही पिघलना पड़ता है,
पथिक को चलना पड़ता है।

हे पथिक तुम हो मात्र केवल,
चलने के ही तत्पर प्रतिनिधी,
सुसंस्कार के संग ले सुनीति,
पाकर ज्ञान अनुज करें प्रगती,
शिष्टश्रेष्ट हिमालय बन अविचल,
स्वयं ही अड़ना पड़ता है,
पथिक को चलना पड़ता है।

पीछे खड़ी है अरिक्त शृंखला,
पाने लालायित लक्ष्य सरला,
दे अनुभव का पदचिन्ह ज्योत,
संध्या सूर्य बन प्रतिदिन तुम्हे,
स्वयं ही ढलना पड़ता है,
पथिक को चलना पड़ता है।

ममता रानी सिन्हा - रामगढ़ (झारखंड)

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