लकड़हारिन - कविता - गोलेन्द्र पटेल

तवा तटस्थ है चूल्हा उदास,
पटरियों पर बिखर गया है भात।
कूड़ादान में रोती है रोटी,
भूख नोचती है आँत,
पेट ताक रहा है गैर का पैर।

खैर जनतंत्र के जंगल में,
एक लड़की बिन रही है लकड़ी।
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर,
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी।
  
हवा तेज चलती है,
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे,
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर।
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह,
हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी।
मैं डर जाता हूँ...!

गोलेन्द्र पटेल - चंदौली (उत्तर प्रदेश)

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