जग आलोक बन आशाकिरण,
चिर नव आश ज्योतिर्मय रहूँ।
तिमिरान्ध व्यापित इस लोक में,
सत्यालोक से मैं भर सकूँ।
प्रसरित दुःख अवदशा चहुँमुख,
दीन संताप जन जीवन हरूँ।
संवेदना दुख मन आश जन
लघ्वालोक बन मैं दे सकूँ।
अम्बर तले सोए पड़े जन,
शीतोष्ण वृष्टि गेह बन सकूँ।
विधिलेखी मान क्लेशित स्वयं,
बस जीवनकिरण मैं बन सकूँ।
चीथड़ों में लिपटे बिन वसन,
तनु लाज रक्षक मैं कर सकूँ।
नित अवसाद में गुमनाम जो,
अवरुद्ध कण्ठ स्वर मैं दे सकूँ।
भयभीत जन मन निज त्रासदी,
अभिव्यक्ति स्वर मैं न दे सकूँ।
जोअन्तर्निहित करुणित व्यथित,
नव आश बन मैं कुछ कर सकूँ।
हे परमेश सब कुछ तेरा रचा,
विधि वैविध्य क्यों जन जन बनूँ।
बस कोई पड़ा नीरव भूमि पर,
रनिवास आश्रय कुछ बन सकूँ।
तुम रक्षा करो प्रभु आर्तजन,
धनी दीन भेद जग मिटा सकूँ।
आत्मबल दो, चिरशक्ति साहस,
भरसक विश्वास मन भर सकूँ।।
चिर जठराग्नि जो आकुल मनुज,
सहयोग सलिल शमन कर सकूँ।
मुस्कान मुख खुशियाँ सुखद हिय,
हर्षोल्लास आशा बन सकूँ।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली