दिल हमारा दिलबर, चुराते रहे।
फिर गैरों में जाकर, लुटाते रहे।।
अगर्चे बहाना दोस्ती का करके,
दुश्मनी का ख़ंजर चुभाते रहे।
वो बारिश का मंज़र भुला नहीं,
जिस्म से भींगकर, लुभातेे रहे।
तेरी जुस्तजू में, इतना न सोचा,
ख़ुद की नाव अक्सर डुबातेे रहे।
दीदार की चाहत मुमकिन न हो,
चिलमन में रहकर छुपाते रहे।
चाक गिरेबाँ होते गए इश्क में,
दास्ताँ गली चलकर सुनाते रहे।
अजनबी हमसफ़र मंज़िल पे नहीं,
यूँ ही 'अनजाना' शहर घुमाते रहे।
महेश "अनजाना" - जमालपुर (बिहार)