मैं नन्ही छोटी गौरैया,
बोलो तेरा क्या लेती थी।
चुगती थी दाने दो चार,
खुशियाँ तेरे घर भर देती थी।
नन्हा सा इक मेरा घोंसला,
वो भी तुझको ना भाया।
कंक्रीट के महल बनाए,
मेरे घर को दिया उजाड़।
चार बूँद पानी को तरसूँ,
दाने भी ना अब पाती हूँ।
घर भी मेरा नहीं है जिसमें,
अपने दो बच्चे सकूँ मैं पाल।
गौरैया दिवस तू खूब मनाता,
मन से भी क्या तूने सोचा है।
दे पाए तो दे देना मुझको,
मेरा घर बस मुझको उपहार।
डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली