हर शजर ये कहता है तख़्तियाँ हमारी थी।
ये क़लम ये काग़ज़ सब ज़िंदगियाँ हमारी थी।।
आज जो महकता है आपका ग़ुसलख़ाना,
फूल कल हमारे थे तितलियाँ हमारी थी।
पेट का हवाला दे माँग ली बुजुर्गों से,
सो रहे हो तुम जिनपे कुर्सियाँ हमारी थी।
साहिलों से मत झगड़ो हम तुम्हें बताते हैं,
दरमियान दरिया के कश्तियाँ हमारी थी।
आज गर न जागे तो बारहा कहोगे कल,
खेत ये हमारे थे क्यारियाँ हमारी थी।
रात को भटकता तू आ गया मिरे दर पे,
और क्या अँधेरे नज़दीकियाँ हमारी थी।
गिलगमेश ने छानी तलहटी समंदर की,
थे गुहर जमा जिनमें सीपियाँ हमारी थी।
मनजीत भोला - कुरुक्षेत्र (हरियाणा)