बहुत दिनों के बाद - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

बहुत दिनों के बाद 
पूर्णचंद्र सी 
उतर कर आई हो तुम...
मेरे हृदय सागर में।
तेरी विमल चाँदनी से...
तर ब तर हो रहा हूँ मैं।
मेरा मन पपीहा 
विह्वल होकर गा रहा है 
मधुर मिलन के गीत।
ब्रह्मकमल की खुशबू से...
सुरभित हो रहा है,
दिग-दिगन्त 
और
मैं तृषित नेत्रों से 
निहार रहा हूँ तुझे। 
बहुत दिनों के बाद...
मेरे मन वीणा का टूटा तार
फिर से झंकार उठा है।
कानों में बजने लगी 
नूपुर की रुन-झुन।
तेरी मुस्कुराहट...
तेरी खिलखिलाहट...
तेरी धड़कन...
तेरा स्पंदन...
तेरा रूप-लावण्य...
सबकुछ... 
प्रतिविम्बित होने लगा है,
मेरे मन दर्पण में। 
पुनः लुभाने लगी मुझको 
तेरी सिन्दूर बिंदु...
जाग उठा हो जैसे...
फिर से मेरा अंतर। 
आलिंगन करना चाहता है तुम्हें...
आओ प्रिये,
सिर्फ... 
सिर्फ एकबार मेरे पास। 
बहुत दिनों के बाद,
मन मधुवन के प्रांगण में...
झरने लगी है स्निग्ध कुसुम मंजरी।
गुँजार करने लगा है मन भ्रमर... 
फिर से फड़फड़ाने लगे हैं,
मेरे शिथिल पड़ी भुजा द्वय।
आओ प्रिये, 
आज विदा की अंतिम वेला में... 
भर दो वही अनुराग।
लिपट जाओ...
लता सरीखी 
मेरे वक्ष स्थल से। 
कह दो कि-
'प्रेम पराजित नहीं हुआ अपना।'
श्वाश्वत रहेगा सदा...
अखिल विश्व में।
लेगी परीक्षा फिर 
अगले जन्म में। 
जीत किसकी होगी मालूम नहीं।
मगर...
आज मैं जीतना चाहता हूँ। 
देर न करो प्रिये।
आज तुम गाओ...
मधुर प्रेमगीत कोई... 
सहलाओ एकबार...
सिर्फ एकबार... 
मेरी जराजीर्ण काया को।
स्पंदन शेष होने को है।
गले लगा लो मुझे।
चिर निद्रा में सोने जा रहा हूँ मैं 
शायद अंतिम बार...
सदा के लिए!!

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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