उनका नही ये आसमाँ,
जो थक के यूँ, सो गये।
ख़्वाब देखे आसमाँ के
फिर जमीं के ही, क्यों हो गये?
देखो सुर्य और चाँद को,
क्या! बादलों मे खो गये?
छटां जब आसमाँ से मेघ,
वे रौशन फिर से हो गये।
तुम भी तो हो, जग के,
फिर दुर्बल कैसे हो गये?
क्या मन्ज़िल इतना दुर है?
जो आँखों मे ही, खो गये।
उठ तू, ज़मीर पर,
उम्मीद को जलाये रख।
पाना है आसमाँ गर तो,
इतना जल्दी तू ना थक।
तकराती हुई लहरें,
चट्टानों से भी देखे है।
परीक्षा लेते उनका,
फिर रास्ते भी देते है।
लक्ष्य पाने से पहले ही,
क्यों घुटने तुमने टेके है?
उठ और पुरा कर,
जो ख़्वाब तुने देखे है।।
मिथलेश वर्मा - बलौदाबाजार (छत्तीसगढ़)