मिहिर! अथ कथा सुनाओ (भाग १) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

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उर तल से जोहार! मिहिर वसु विश्व-विधाता।
जग के पालनहार, सृष्टि के प्राण-प्रदाता।
हे ईश्वरीय नेत्र, तुम्हें पूजे जग सारा।
तुम ही हो सर्वत्र, जगत तुम बिनु अँधियारा।

साक्षी बन चिरकाल, गगन पे तुम हो छाए।
मौनी व्योम नृपाल, मौन व्रत सदा निभाए।
कैसा था वह प्रांत, ज़ुबानी तुम अब बोलो।
हे प्रिय संज्ञाकांत, आज अपना लब खोलो।।

दो अविलंब जबाब, रहो मत बने उदासी।
सुनने को बेताब, आज हैं जग के वासी।
नाना भ्रंश-पठार, प्रपातें नदियाँ जंगल।
पहाड़ियाँ क्रमवार, मचाई थी कब हलचल?

गह्वर जीवन काल, यथा हिमयुगीन मंजर।
प्रथम जली जब ज्वाल, रगड़ के चकमक पत्थर।
काष्ठ-अस्थि अरु शैल, अस्त्र-शस्त्रों का बाना।
तीर-कमान-गुलैल, आदिमानव कृत नाना।।

चेतनशील समाज, वनांचल को शत वारे।
असुर लौह साम्राज्य, वनांचल भूमि उबारे।
'ओते-दिशुम 'महान' होड़को-होड़ो' गाथा।
गाते गीत सुजान, झुका कर उन्नत माथा।।

वही पुरातन गीत, मिहिर! तुम सस्वर गाओ।
धूमिल पड़ा अतीत, सविस्तार हमें बताओ
झारखण्ड विस्तार, हुआ कैसे बतलाओ।।
ममता करे गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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