घाव और लगाव - कविता - अमित अग्रवाल

अनजान किसी मोड़ पर
किसी अजनबी से
जब हो गया लगाव,
आखिर तोहफे में
मिलना ही था घाव।

ये घाव चुभता है
हर एक साँस
एक कसक बनकर, 
जैसे ज़िन्दगी कर रही
एक अहसान
एक सबक बनकर।

ग़म ये नही की
तमाम जज्बातो की सर्द रात में
आँसुओ का अलाव है,
तकलीफ तो अब इतनी सी है
कि लगाव का ही घाव है
और घाव से ही लगाव है।

नसीब मुकद्दर से मिलते है शख्श...
ये ख्याल तो इंसानी पड़ाव है,
रख दो निकाल के
रूह को भी अपनी किसी के लिए
पर फितरत से
किसी का कहाँ जुड़ाव है।

मैं चला सच्चे रिश्ते
बनाने निभाने यहाँ
पर दुनिया मतलब की
और लोगो का मतलबी स्वभाव है,
अब ना रही ख्वाइशें
ना किसी से लगाव है
क्योंकि हर लगाव का
अंजाम एक नया घाव है।

अमित अग्रवाल - जयपुर (राजस्थान)

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