दीपोत्सव - कविता - डॉ. अवधेश कुमार "अवध"

किसी जगह पर दीप जले अरु कहीं अँधेरी रातें हों ।
नहीं  दिवाली  पूर्ण बनेगी, अगर भेद  की  बातें   हों ।।

ऐसे  व्यंजन  नहीं  चाहिए, हक  हो  जिसमें औरों का ।
ऐसी  नीति   महानाशक  है, नाश करे  जो   गैरों   का ।।

हम  तो  पंचशील  अनुयायी, सबके  सुख में जीते हैं ।
अगर  प्रेम  से मिले जहर भी, हँस करके  ही  पीेते  हैं ।।

चूल्हा  जले  पड़ोसी  के  घर, तब हम  मोद  मनाते  हैं ।
श्मशान   तक  कंधा  देकर,  अन्तिम  साथ  निभाते हैं ।।

किन्तु चोट हो स्वाभिमान पर, जिन्दा कभी ना छोड़ेंगे ।
दीप  जलाकर  किया  उजाला, राख  बनाकर   छोड़ेंगे ।।

दीपोत्सव का मतलब है यह, सबके घर खुशहाली हो ।
दीन दुखी  निर्बल  के घर  भी, भूख मिटाती  थाली हो ।।

प्रथम दीप के प्रथम रश्मि की, कसम सभी जन खायेंगे ।
दीप  जलाकर  सबके  घर  में, अपना  दीप  जलायेंगे ।।

घर घर में जयकारा गूँजे, कण कण में खुशहाली हो ।
सच्चे  अर्थों  में उस दिन  ही, दीपक  पर्व  दिवाली हो ।।

डॉ. अवधेश कुमार "अवध" - गुवाहाटी (असम)

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