कलम भी कहती - कविता - श्याम "राज"

कहानी लिखता जाऊ
कविता लिखता जाऊ 
मैं ठहरा कलम का सिपाही 
अब तो हर बात लिखता जाऊ 
पर...
रोती है अब तो कलम भी मेरी
जब समसामियकी घटनाओं को 
शब्दों से वाक्यों में 
उतारकर लिखता जाऊ...।।
कल की बातें आज लिखुँ या 
लिख दूँ आने वाले कल को 
बात वही होगी बस 
नाम और जगह बदली होगी 
वो ही पांच -छः साल की 
पंद्रह सोलह साल की 
नन्ही-सी नाजुक-सी 
किसी बगिया की कली होगी 
आहत है अब तो कलम भी मेरी
हैवानियत की हद देख कर 
आग लगा दो ऐसी जवानी को 
जो भूल गई अपनी ही बहन को 
कच्ची उम्र, अबोध ज्ञान 
कहाँ से सीख आये 
हैवानियत ऐसी... 
निर्भया को देखा पहले 
अभी अभी हाथरस की 
मनीषा को देखा 
ऐसी न जाने कितनी ही 
निर्भया और मनीषा होगी।।
ओ दरिन्दो ! बता दो 
घर में ही रहूं या बाहर भी निकलू 
घूँघट में रहूं अपने सपनों को दबा दूँ 
कहते है सब मुझे भी 
समानता का अधिकार है तुझे भी 
ऐसा सम्मान देते हो मुझे 
मेरा अंग अंग नोच खाते हो 
माँ क्या क्या बताऊ तुझे 
क्या क्या किया दरिन्दो ने 
ओ माँ ! बहुत दर्द हो रहा है 
पैदा होते ही तू मार देती मुझे 
यूँ तो दर्द नहीं होता मुझे 
माँ क्या क्या...
क्या क्या किया...
अब तो मेरी कलम भी कहती है 
रुक रुक ओ ! सिपाही...
अब तू भी रुक जा 
और नहीं लिखा जाता मुझसे।।

श्याम "राज" - जयपुर (राजस्थान)

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