फूलपातड़ल्यां - राजस्थानी कविता - कपिलदेव आर्य

एक तो थारा नैण कंटीला, मिसरी बरगी बातड़ल्यां,
मुळक सोवणी हिवड़ो हरती, बात करै फूलपातड़ल्यां!

ओळ्यूं थारी भोळी सूरत, क्यूं नीं सोवै आँखड़ल्यां?
अधरां ऊपर मुळक नाचती, डसगी बैरण रातड़ल्यां!

सूनी सेज पर तड़फा खावै, गोरी थारी सांसड़ल्यां,
पड़ी काळजै सागै रोवै, हिवड़ै री फूलपातड़ल्यां !

काळी कुड़ती पर चंद्रकिरण सी, बिखरी है पांखड़ल्यां,
मावस रात में दम-दम दमकै, बांथ भरै फूलपातड़ल्यां !

सप्तमंडल सी गळ में सोवै, मैं निरखूं थारी बाटड़ल्यां,
छण-छण बाजै; खण-खण हांसै, थारी फूलपातड़ल्यां!

प्रीत करी सो दुख पायो मैं, सुख री आसा राखड़ल्यां,
कदे हेत होलोरा खावै, कदे घात करै फूलपातड़ल्यां !

कामणगारी इब तो आज्या, भरल्यूं थानै बांथड़ल्यां,
बीती जावै जूण एकली, कह थारी फूलपातड़ल्यां !

कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos