मुझे मालूम है
मेरे लिखने से
सत्ता के कानों में
जूं तक नहीं रेंगेगी
मगर मै लिखता रहूँगा
उन बदनसीब गिर वासी
वनवासी, निरीह आदिवासियों
के लिए
जो तुम्हारे उदर की पूर्ति
करते करते सिमट गए
हिंसक पशुओं के बीच
भयानक जंगल में
जंगली जीवों को तो
कर लिया वशीभूत
उन्होंने अपने प्रेम से
पर वो बचा नहीं पाएंगे
खुद को दुनिया के सबसे
खतरनाक जानवर से शायद ..!
मुझे मालूम है
मेरे लिखने से
भर नहीं सकेगा
भूख का पेट
मगर मै लिखता रहूँगा
उन मजबूर मजदूरों के लिए
जो अन्न के एक निवाले के लिए
अपनी हड्डियों की कुदाल
बनाकर, भरकर अपने स्वेद से
तुम्हारा स्विमिंग पूल,
बना रहे हैं, अपने रुधिर से
तुम्हारे लिए ऊँचा आशियाना
और स्वयं सो जाते हैं
बिछाकर धरती का बिछोना
ओढ़कर ऊँचा आसमां।
मुझे मालूम है
मेरे लिखने से
नहीं रुकेंगी आत्म हत्याएं
मगर मै लिखता रहूँगा
उन बेबस किसानों के लिए
जो तुम्हारे बनाए हुए
कानूनों में उलझ कर रह जाते हैं
क्षुधा तुम्हारी मिटाते मिटाते
खुद भुखे सो जाते हैं
फंसकर कर्ज के मकड़जाल में
पत्नी को विधवा और
बच्चो को अनाथ कर जाते हैं।
मुझे मालूम है
मेरे लिखने से
नहीं रुकेंगे
हत्याएं और बलात्कार
मगर मै लिखता रहूँगा।
सृष्टि के अंतिम पायदान
पर रहने वाले
मजदूर और किसान के लिए
बेबस और लाचार के लिए
न्याय और सर्वाहार के लिए
आधी आबादी के अधिकार के लिए
हाँ, मै लिखता रहूँगा।
अशोक योगी "शास्त्री" - कालबा नारनौल (हरियाणा)