भोर की प्रतीक्षा में - कहानी - प्रवीण श्रीवास्तव

सुधा गृह कार्य से निबटकर आराम करने की ही सोच रही थी कि अचानक किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। मन ही मन कुढ़ती हुई सुधा दरवाज़े की तरफ बढ़ी और कुंदी खोलने लगी परंतु यह सोच कि इस भरी दोपहरी में कौन हो सकता है ? कुंदी खोलने के पूर्व उसने पूंछना उचित समझा -
" कौन है इस वक़्त ?"
" मैं -- मैं हूँ ।" बाहर से कंपकंपाता हुआ महिला स्वर आया । महिला स्वर सुन सुधा कुछ आश्वस्त हुई और उसने कुंदी खोल दी ।

दरवाज़ा खोलने के पश्चात सुधा ने देखा कि बाहर एक महिला खड़ी हुई थी । जिसका चेहरा पीला तथा माथे पर पसीने की बूंदें झलक रहीं थी ,हाँथ पैर किसी अनहोनी की आशंका से कांप रहे थे । अब सुधा ने एक नज़र उसको ऊपर से नीचे तक देखा उसके शरीर पर वो सब निशानियां थीं जो एक सुहागिन के पास होती है ।
"कौन हो तुम ? " सुधा ने पूंछा ।
" मैं सुमन हूँ " वह अभी तक घबड़ा रही थी ।
" कौन सुमन ....? और मुझसे क्या चाहती हो ....?" सुधा ने फिर पूंछा। 
" शरण...।" उसने एक शब्द का उत्तर दिया ।
"क्यों....?"
"मेरे पति मेरा बच्चा मार देना चाहते है .... उसे बचाने के लिए अपना घर छोड़ कर चली आई ..।"
सुमन ने साड़ी के पल्लू से अपने माथे का पसीना पोंछा ।
इस बीच सुधा को सुमन से थोड़ी सहानुभूति हो गयी थी और वह सुमन की मदद करना चाहती थी। आखिर करे भी क्यों न .. जब इंसान ही इंसान की मदद न करे तो कौन करे ? और सुधा ने अपने परिवार बालों से पूछे बगैर ही सुमन को शरण दे दी । उसे इस समय परिवार बालों से पूछना उचित भी नहीं लगा क्यों कि ऐसे समय अच्छे बुरे का निर्णय इंसान को कमजोर बना देता है ।

सुधा ने उसे घर के अंदर बुला लिया और पलंग पर बैठने का इशारा किया ,इशारा पाकर वह बैठ गयी और आदर की दृष्टि से सुधा को देखने लगी ।
" मैं आपकी अहसानमंद हूँ ...। आपने मुझ बेसहारा को सहारा दिया ..मैं यह अहसान कभी नही उतार सकूंगी ..।"
नहीं.. यह अहसान नहीं सुमन ..प्रेम को अहसान का नाम दे कर लज्जित कर रही हो ।"
"प्रेम....!" इस प्रेम शब्द से शायद सुमन के हृदय की पीड़ा बढ़ गयी बोली -"जब जीवनभर प्रेम का वादा कर ने बाले भी प्रेम न दे सके तो आपको कैसे अपना समझूँ?"
" मैं तुम्हारे मन की पीड़ा समझती हूँ.. जब तक जी चाहे यहां आराम से रहो .... धैर्य रखो ....ईश्वर सब सही करेगा ....।" सुधा ने सुमन को धीरज बंधाया ।

सुधा द्वारा  बोला गया ईश्वर को महान बताने बाला यह वाक्य सुमन को पसंद न आया ,इस बीच सुमन आस्तिक से कब नास्तिक हो गयी उसे खुद को पता न चला । सामने अलमारी में रखी शिवजी की तस्वीर को उसने ऐसे देखा जैसे अभी भस्म कर देगी । शायद यह बिडम्बना ही तो थी जो सुमन जैसी स्वाभिमानी महिला आज किसी की शरण में बैठी थी ....यह ईश्वर की मर्जी नहीं तो किसकी है ..? आखिर दिया ही क्या था ईश्वर ने उसे ...? पैदा होते ही माँ छीन ली ....परिवार बालों ने उपेक्षा से देखा ...आखिर देखते क्यों न .. बेटी का जन्म जो हुआ था ...आशा तो पुत्र की लगाई थी।ओर माँ की मौत का कारण भी तो बताया गया था उसे ..जिसे यह भी मालूम नहीं था कि वो किस परिवार में जन्मी है ...किस जात विरादरी में ...किस कुल में ? वह तो समाज के इन सब बंधनों से परे एक इंसान के घर जन्मी थी पर इंसान भी हैबानियत का रूप होता है वो न समझती थी, और आज जीवनभर साथ निभाने बाला , हवनकुंड की पवित्र अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर सात वचन देने बाला पति ही उसकी ममता का गला घोंट देना चाहता था । क्या यह एक बिडम्बना नहीं...?
सुमन का स्वर उसके अंतर्मन को तार तार कर रहा था --
" नहीं दीदी जी ...ईश्वर को इतना महान मत बनाइये ।"
सुधा ने सुमन की पीड़ा को महसूस कर घटनाक्रम के बारे में जानना चाहा ..
" क्या बात है सुमन ...क्यों भाग आईं तुम घर से ? क्या तुम यह नही जानती कि डाल से टूट कर पत्ता फिर डाल पर नहीं जुड़ता ..?"
" तो क्या मर जाने देती अपनी बच्ची को ..? घुट जानें देती अपनी ममता का गला ..? नहीं दीदीजी  मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती ..... चाहे मुझको घर क्या पूरा संसार ही क्यों न छोड़ना पड़े ..मैं अपनी बेटी को जन्म दूंगी ओर हर हाल में दूंगी ..।"
सुमन के होंठ रुके तो आंखे अनायास ही छलछला उठीं ,वह उन आँसुओं का बांध न रोक सकी । आखिर कसर की क्या रखी थी उसके पति रमेश ने कुछ कहने में ? वह सब बातें तो कह दी थी तो उसका हृदय तोड़ने के लिए पर्याप्त थीं ।

न जाने अतीत की बंद पुस्तक कब खुल गयी और सुमन उसको पढ़ कर सुनाने के लिये विवश हो गयी । मात्र एक दिन पुरानी बात ही तो थी वह , अतीत तो फिर अतीत ही होता है भले ही एक दिन पुराना ही क्यों न हो । एक एक बात ,मन की भावनाएं उसके मस्तिष्क में चलचित्र की भांति घूमने लगे और उसकी जीभ से स्वर बन कर झलक पड़े । कल का दिन ही तो था वो अभागा जब वो अपने पति के कहने पर गर्भस्थ शिशु की सोनोग्राफी के लिए डॉक्टर के पास गयी थी ।

खुद रमेश की भी इच्छा थी कि मैं पिता बनूँ पर जब डॉक्टर ने यह बताया कि गर्भ में बेटी है तो उनकी इंसानियत पर हैबानियत सवार हो गयी थी ।  पिता यह चाहता है कि पुत्र के दहेज से घर भरे तो भला पुत्री के विवाह में दहेज देना कैसे स्वीकार करें? जब प्रारंभ से ही अनुमान न लगाएंगे कि कितना दहेज लेना है तो शायद है कि ऐन वक्त पर अंदाज गड़बड़ा जाए ....।
पर सुमन को तो ममता लुटानी थी चाहे वो पुत्र पर लुटाती या पुत्री पर ...। तो पति का यह निर्णय वह कैसे स्वीकार करती कि बच्चा गिरा दो ....?
उसके मन की व्यथा विद्रोह बन कर झलक पड़ी ...
" नहीं ....! चाहे पुत्र हो या पुत्री उसे मैं जन्म दूंगी यही मेरा निर्णय है ...।"
" पति का निर्णय हर पत्नी को मान्य होता है अतः तुमको मेरा निर्णय स्वीकार करना ही होगा ।" रमेश ने रौब जमाते हुए  कहा था।
" मतलव तो मुझे अपनी बेटी के बिना जीना होगा यही न ...? पर मैं नहीं जी सकती अपनी बेटी के बगैर ...., सुन लिया तुमने ...मैं बेटी को जन्म दूंगी और हर हाल में दूंगी ...।"
"तुमको मेरी बात माननी ही पड़ेगी .. देखो सुमन समझदारी से काम लो ,जानती हो बेटी के दहेज में कितना पैसा लगता है ..  कहाँ से लाऊंगा इतना पैसा ... ? मैं मध्यम वर्गीय कर्मचारी हूँ ..अब भला कौन है मेरे जैसा जो बिना दहेज किसी को भी अपने गले से बांध ले...।"
सुमन के स्वाभिमान पर रमेश के इन शब्दों का पत्थर पड़ा और वह बिलख कर रह गयी । वो तो बिना दहेज की खुद की शादी को पति का प्रेम समझती रही थी पर वो तो दया की पात्र बनी थी आज मालूम हुआ था । प्रेम की डोर दया के एक ही झटके से टूट गयी , उसमे पिरोए गए अरमानों के मोती जमीन पर यहां वहां  बिखर गए थे जिनको चाह कर भी बीना नहीं जा सकता था ।
" तो दया की थी आपने मुझ गरीब पर ...? मुझे नहीं चाह थी उस दया की । अगर आपके मुंह से यह शब्द न निकलते तो मैं उस दया को प्रेम ही समझती रहती । पर अब तो वह डोर ही टूट गयी ... अब आप बच्ची को जन्म देने से नहीं रोक सकते ।"
"यह भी ख्याल करो कि तुम अगर बच्ची की मां हो तो मैं भी पिता हूँ ..। यह मेरा निर्णय ही नही आदेश भी है  तुमको मेरा यह आदेश मानना ही होगा , नही तो तुम मेरे घर में नहीं रह सकतीं ।"
कैसी विषम परिस्थिति थी ..ममता और सिंदूर में से किसे चुने सुमन ? सिंदूर के बगैर शायद रह भी ले पर ममता को कैसे चढ़ाए सिंदूर की बलिबेदी पर ? 
ओर पति का आदेश भी कैसा ...? जो सुमन के पंख काट कर उसको खुले आसमान में उड़ने का आदेश दे रहा था ,  उसके नेत्र छीन कर सुंदर पुष्प की व्याख्या करने को कह रहा था ।
पर उसने एक बार पुनः अपने पति को समझाना उचित समझा, जिस स्वाभिमानी सुमन ने कभी किसी के आगे हाँथ न जोड़े हों आज वही अबला बनी रमेश के आगे हाँथ जोड़े खड़ी थी ..एक भिखारिन बनी कि शायद रमेश उसकी झोली में ममता की भीख डाल दे । अब एक यही आस रह गयी थी ,हाँथ जोड़ दिए ,आंसू बहने लगे और स्वर में सिसकियां स्पष्ट सुनाई देने लगीं -
मैं तुम्हारे सामने हाँथ जोड़तीं हूँ रमेश ... । मेरा जीवन नष्ट न कीजिये ...मुझे एक माँ कहलाने का अधिकार दीजिये । यह मत भूलो कि मैं तुम्हारी पत्नी के साथ साथ एक स्त्री भी हूँ .....पृथ्बी की तरह ... और दोनों का ही नाम उपज है । अगर पृथ्बी अन्न उपजाना बंद कर दे तो क्या खायेंगे लोग ...?? अगर स्त्री भी केवल पुत्र को जन्म दे तो कैसे संभव होगा सृष्टि का विकास....?"
सुमन के कहे हुए शब्दों का रमेश पर कोई असर नहीं हुआ, वह सुमन को यूं ही देखता रहा एक चिकने पत्थर की तरह, जिसको सुमन के आंसू भिगो न सके । पत्थर से भी क्या आशा की जा सकती थी।
जिस समय सुमन घर से बाहर निकली तो सहसा रो पड़ी।उसके मन मे ऐसे भाव जागृत हुए जैसे किसी लाश को उठाते समय शोकातुर प्राणियों के मन में आते है । पर जैसे तैसे उसने अपने मन के भावों पर विजय पा ली,और चली गयी  धूप में ,..जलती धरती पर ......नंगे पाँव ....।

जब सुमन के स्वर से निकले शब्द रूपी अतीत की डोर टूटी तो सुधा ने गहरी सहानुभूति से उसकी आंखों से बहते आंसू पौंछ दिए । सचमुच सुधा उसकी विवशता देख कर अत्यंत भावुक हो उठी थी और उसे अपने ही घर मे शरण देने का निश्चय कर चुकी थी ।

अचानक किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी ,सुधा ने उठ कर दरवाज़ा खोल कर देखा कि बाहर एक युबक खड़ा है । सुधा कुछ पूछती उससे पहिले युबक ने प्रश्न किया --
"सुमन ...यहीं आयी है न ....?"
सुधा तुरंत कोई उत्तर नहीं दे पाई । उसने ध्यान से उस युबक की तरफ देखा , उसकी आँखों में आंसू थे शायद प्रायश्चित के , और स्वर में निश्छलता थी । , सुधा समझ गयी थी कि शायद यही सुमन का पति रमेश है । उसने फिर पूंछा -
" सुमन यहीं पर आई है न...?"
"हां....।" सुधा ने उत्तर दिया ।
वह युबक सुधा से आज्ञा लिए बिना ही अंदर आ गया और सामने बैठी सुमन के पास आ गया और बोला-
"चलो... सुमन ..अपने घर चलो ...।"
सुमन आश्चर्य से देखती रह गयी कि यह सब क्या हो रहा है ,लगता है पति ने उचित मार्ग का चयन कर लिया है ।
रमेश ने फिर कहा ....
"तुम्हारे घर से चले जाने के बाद मुझको अपनी भूल का अहसास हुआ , बिना स्त्री के घर दो कौड़ी के समान होता है मैं समझ गया । मुझे माफ़ कर दो .... चलो घर ....अब हमारा संसार स्वर्ग के समान सुंदर होगा , हमारी बेटी ही हमे बेटे के समान प्रिय होगी ...।"
सुमन को यह सब एक सपना सा लग रहा था  । जिस भोर की प्रतीक्षा में वह अनंत अंधकार में भटक रही थी उस भोर का प्रकाश अपनी असंख्य किरणों के साथ उसका स्वागत कर रहा था , जहाँ दुख का कोई भी नामोनिशान न था , मन में कोई शंका शेष न थी , बस प्यार ही प्यार था । उसने अपार श्रद्धा से अपने पति का हाँथ थाम लिया और सुधा को प्रणाम कर मन में अपार हर्ष लिए अपने घर की तरफ चली गयी और सुधा सामने शिव जी की तस्वीर को मन ही मन प्रणाम कर उनको जाते हुए जब तक देखती रही जब तक कि वो आंखों से ओझल नहीं हो गए ।

प्रवीण श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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