फिर मनुआ मरने से क्या घबराना - कविता - डॉ. ओमप्रकाश दुबे

तुम्हें पता है! तुम कहां से आए हो,
तुम्हें पता है! तुम कहां जाओगे
माना तुम अनुमान लंबे चौड़े लगाओगे
यहां तक भी, तुम आध्यात्मिक गुरु भी बन जाओगे,
लेकिन! सच बात तो यह है मानो या ना मानो
तुम तो बस हो, एक चाबी का खिलौना
जितनी चाबी भरी है प्रभु ने बस उतना ही हंसना या रोना
सच में नहीं है, तुम्हारा यहां कोई स्थाई ठिकाना
आज नहीं तो कल जाना,
फिर मानूंगा मरने से,...............
सच में संसार की पटरी पर
जीवन है एक चलती रेलगाड़ी,
आत्मा है इसकी सवारी,
जिसका समय रूपी ड्राइवर है, सबसे बड़ा खिलाड़ी,
जहां आ जाता तुम्हारा अज्ञात प्लेटफार्म
वहीं उसने आत्मा रूपी सवारी उतारी,
और इन सब के पीछे, जिसका सबसे बड़ा रोल होता है,
वह है परमात्मा!
इस आत्मा रूपी बंदरियो का सबसे बड़ा मदारी
सच बात तो बस यही है
अब बनाओ चाहे जितना बहाना
आज नहीं तो कल जाना
फिर मनुआ मरने से..................
फिर इस शरीर पर इतना क्यों इतराते हो,
इस शरीर के सुख की खातिर
तुम मानवीय संवेदना से इतने बांझ क्यों हो जाते हो
लोगों पर ना जाने कितने जुल्म ढाते हो,
कभी-कभी तो, इतने खुदगर्ज हो जाते हो,
मन से शुद्ध पशु बन जाते हो
जबकि तुम भली-भांति जानते हो
पंच तत्व से बना शरीर पंचतत्व में ही मिल जाना है,
इसके बाद क्या होना है, इसका कोई नहीं ठिकाना है
आज नहीं तो कल जाना है
फिर मनुआ मरने से क्या......... 

डॉ. ओमप्रकाश दुबे - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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