हर मुसीबत में बनके ढाल वो आती है नज़र ।।
माँ के आँचल में जो सोया तो नींद खूब लगी,
फिर नहीं होश के सूरज कब आया है उतर ।।
जब भी बात आती कमाने को दूर जाने की ,
डरती है रोती है आया हो जैसे कोई क़हर ।।
छोड़ आया हूँ मैं आँखों में छलकता पानी,
कितनी मुश्किल से अपने गाँव से आया हूँ शहर ।।
कितने लटका दिए तावीज़ हर नज़र से बचूँ ,
माँ जो हँस दे तो लगे आया हो ज़न्नत ही इधर ।।
प्रदीप श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)