झर गये हैं शाख से, कुछ कुंआरे सुमन।
सांस को सहे या प्राण को समझाये
जिंदगी, जंग की बाजी कैसे बिछाये।
शंकित हर सुबह, बैचेन हर रात होती
आंख में आंसू, पर अधर से मुस्कराये।
लड़ते हुये ,थक न जाये दिल की धड़कन।
उगा दिनमान, ढलेगा भी, जानता हूँ
आयु की सलिला, रुकेगी, जानता हूँ।
जो खिला मधुमास में, वह झरेगा भी
तकदीर में जो लिखा,सभी जानता हूँ।
न आये दिन , टूटे किसी हाथ का कंगन।
हर नदी सागर में मिलेगी, यह तय है
समय कितना लगे, सोच का यह विषय है।
माटी में खिला तन, माटी में मिलेगा -
घर मे रहने का, सबका समय भी तय है।
सोचता हूँ, सब पता है, फिर भी उलझन।
उमेश राहीनवी मुंबई (महाराष्ट्र)