सफ़र अधूरा - कविता - चीनू गिरि


अभी तो मेरा सफ़र अधूरा है
मंजिल को पाने का ख्वाब अधूरा है
निकल पडी हुं मैं जिस राह पर
मंजिल तक जाने का रास्ता अधूरा है
अभी रास्ते मे हुं मंज़िल दिख तक नही रही
पता नही की कितनी बार रुकना होगा
अभी तो मेरा सफर अधूरा है
मंजिल को पाने का ख्वाब अधूरा है
हो सकता है मैं अपने इरादे से डगमगाने लग जाऊ
पाव के छाले देखकर मै लडखडाने लग जाऊ
अभी शुरुआत हुई है और जाना भी अकेले है
मंजिल बहुत दूर है मैं दुरी को देखकर डरने लग जाऊ
अभी तो मेरा सफर अधूरा है
मंजिल को पाने का ख्वाब अधूरा है
एक ख्वाब लेकर मे सफर पर निकली हुं
आसमां छुने का दिल मे अरमान लिए हुं
बहुत अंधेरा है मेरे चारो और मंजिल दिखती नही
उम्मीदे,साहस,विश्वास अपने साथ लिए हुं
अभी तो मेरा सफर अधूरा है
मंजिल को पाने का ख्वाब अधूरा है
शुरुआत मे ही कैसे कह दू सफ़र पूरा हुआ
मंज़िल पर पहुँच ना जाऊ तब तक मेरा सफ़र अधूरा है
अभी तो मेरा सफर अधूरा है
मंजिल को पाने का ख्वाब अधूरा है

चीनू गिरि 
देहरादून (उत्तराखंड)

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